दुनिया
में न जाने कितने प्रकार के दर्द हैं। इनमें से जब एक भी प्रकार का दर्द
खुद पर पड़ता है, तभी पता चलता कि दर्द में कितना दर्द होता है।
दर्द
को भोगे बगैर कोई कैसे जान पाएगा दर्द की इन्साइक्लोपीडिया| उसको जानना
हैं तो दर्द तो भोगना ही पड़ेगा| वैसे भी इस जहान में ऐसा कोई नहीं जिसे
दर्द से रूबरू न होना पड़ा हो| इधर कोई जिस प्रकार के दर्द से रूबरू हुआ उधर
उसको उस दर्द से पीड़ितों का दर्द समझ में आया| 'जाके पांव न फटी बिवाई, वो
क्या जाने पीर पराई' कहा ही गया है।
किसी हथियार, या फिर
गिरने-पड़ने से तो चोट लगती रहती है| पर इन चोटों के घाव जल्दी भर जाते हैं।
लेकिन बातों से जो घाव लगते हैं वे कभी नहीं भरते| हम सब यह सुनते ही रहते
हैं कई बार।
बातों की चोट तभी लगती है जब हम मन से घायल होते है|
जब हम मन से स्वस्थ होते तो यह बातें महज़ शब्दबाण की तरह दिखती हैं | जिसे
हम स्वयं भी दूसरों पर बेफ़िक्री से छोड़ते रहते हैं| परन्तु जैसे ही ये
बातें हमारे घायल मन पर पड़ती है तो ये सामान्य सी बातें भी व्यंग्य बाण
बनकर सीधे हृदय के विच्छेदन की क्षमता रखती हैं| हमारे अंदर का कोई सूखा
हुआ घाव भी हरा हो जाता है, ऐसे व्यंग्यात्मक बाणों से| तभी हमें "जाके
पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई" कहावत का अर्थ समझ में आता है|
ऐसा लगता है, कुछ तो ऐसा असामान्य नहीं कहा गया, परन्तु जब तक खुद को न
लगे वह शब्द बाण, अपने सूखे जख्म, हृदय के किसी कोने में सुषुप्तावस्था से
जागृत नहीं हो जाते, हम नहीं समझ पाते।
बातों की चोट पर एक बात याद
आई जो कहावत से ही सम्बन्धित है| कहावत का मतलब तो सामान्य सा ही होता है,
पर यदि वह कहावत किसी ऐसे व्यक्ति के सामने कही जाये जिसपर यह कहावत
चरितार्थ होती हो, तो उन्हें अवश्य चोट लगतीं है|
वह कहावत है-
'बाँझ बियाय न बियाय देय'। अक्सर आप सभी ने भी सुना ही होगा इस कहावत को,
अपने गाँव के अंचल में| कोई जब न खुद कोई काम करे न किसी को कुछ करने दे,
ऐसी स्थिति में अक्सर यह कहावत कही जाती हैं गाँवों में। यह कहावत तब तक
सामान्य सी लगती थी जब तक हम इसे ऐसो के सामने न कहें जहाँ कोई बाँझ स्त्री
हो|
एक बाँझ(गर्भधारण में असक्षम) औरत के सामने इस कहावत को कहते
ही आप खुद देखेंगे कि इस कहावत को सुनकर कोई भी बाँझ स्त्री बेइंतहा पीड़ा
से भर सकती है। आपको उसकी पीड़ा उसके चेहरे पर उभरती हुई दिख जाएगी| फिर
महसूस करिये उसकी पीड़ा!! यदि आप दिल से उस पीड़ा को महसूस करेंगे तो आपको
लगेगा कि आप को जैसे किसी जलती अंगीठी पर बैठा दिया गया हो।
यदि
दूसरों के दर्द को हम महसूस नहीं कर पाते हैं तो हममें संवेदना का आभाव कहा
जा सकता है| किन्तु जिन्दगी के किसी भी मोड़ पर ऐसी कोई बात तो हर इंसान के
साथ हो ही सकती है जो उसे दर्द पहुँचाती है| या हर इंसान की दु:खती रग
होती है कोई न कोई बात। बस उस दुखती रग पर कभी हाथ रखिये, फिर देखिये। वह
आहत होते ही कराहकर कह उठेगा कि जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर
पराई!!!
बड़ी बिडंबना है कि हम कोई भी बात तब तक बड़े सामान्य होकर
बोल लेते हैं , जब तक उस बात से खुद न आहत होते हो। खुद के आहत होते ही
हमें पता चलता है कि हम कितना गलत बोल गए..! फिर लाख माफ़ी मांगकर भी व्यंग
बाण से हुए दिल के घाव नहीं भर सकते हैं..! भले ही कितनी भी कोशिश क्यों न
करें।
कई कहावतें ऐसी हैं जिनका अर्थ बड़ा सीधा और सरल सा है| पर
कहावत बड़े टेढ़े अंदाज में कही गयी है| जैसे कि 'भैंस के आगे बीन बजायें,
भैंस खड़ी पगुराय', 'अंधे के आगे रोये, अपने दीदे खोये, 'या फिर '
कुत्ते
भौंकते रहते हैं, हाथी चलती रहती अपनी राह' |
बड़े बड़े घाव किये है
ऐसी ऐसी कहावतों ने| और ऐसी कहावतें यह कहने को भी मजबूर करती हैं कि जाके
पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई|
--सविता मिश्रा