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अक्तूबर 28, 2014

आप ही बताइए~

बचा लिया मैंने
जलती हुई  एक
अधजली औरत को
पूरी जलने से 
अधजली
इसलिए कि मैं
उसकी करनी की उसे
चाहती थी देना सजा|
अब आप ही बताइए?
मैं दयावान या निर्दयी।

एक बच्चे को मैंने
बचा लिया दुर्घटना से
क्योंकि वह
बेटा था अमीर बाप का
गरीब के लिए तो मैंने
जान की बाजी अपनी
नहीं लगाईं थी कभी।
अब आप ही बताइए?
मै स्वार्थी हूँ या फरिश्ता।

मैंने एक इंसान की
बड़ी ही निर्दयता पूर्वक
कर दिया क़त्ल
वह इस लिए कि
मुझे लगा कि वह
इंसानियत का दुश्मन है
साल भर की बच्ची का
कर बलात्कार
मार दिया था उसने
उसे क्रूरता से
हैवानियत जाग गयी थी उसमें
उसको परलोक पहुँचाना
अपना फर्ज समझा मैंने |

अब आप ही बताइए ?
मैं इंसान हूँ या शैतान |
मैंने शक के आधार पर
पकड़े हुए निर्दोष आदमी को
बर्बाद हो न जीवन उसका
छोड़ दिया ले- देकर
ले देकर इस लिए कि
उसूल था वह अपना
उसूल पालन के साथ ही
एक जिन्दगी को
होने  से बर्बाद
 बचा लिया  मैंने |
अब आप ही बताइए?
मैं ईमानदार हूँ या घूसखोर ।


अपने घर के पास
छुपे हुए कातिल को
बचा लिया मैंने
क्योंकि लगा मुझे
नहीं किया है उसने क़त्ल
चेहरे के हाव भाव
पढ़ने का हुनर
उम्र के साथ
आ ही गया था हममें|
अब आप ही बताइए?

मैंने कर्त्तव्य-पालन किया
या कानून का उल्लंघन ।

अपने प्रिय नेता पर
लगे आरोप को मैं
कैसे करूँ सहज ही सहन
नहीं कर पाती कभी भी 
आरोप लगाने वाले को
नीच प्रवृत्ति का
व्यक्ति हूँ समझती
क्योंकि मुझे लगता है कि
वह कर ही नहीं सकते ऐसा!
कर सकता है क्या?
कोई आदर्श व्यक्ति
ऐसे निकृष्ट काम कभी।

अब आप ही बताइए?
मैं देशभक्त हूँ या देशद्रोही ।

बिना सोचे समझे मैंने
पंक्तियां कुछ लिखकर
पढ़ दिया आपके आगे
क्योंकि लगता है मुझे कि
अपनी भावनाओं को मैंने
उड़ेल दिया है इन चंद शब्दों में
और लोगों ने शायद
इसी अभिव्यक्ति को
कविता का नाम दिया है।
अब आप ही बताइए?
मैं कवियत्री हूँ या
समय की बर्बादी ।

समय की बर्बादी
आप ही बताइए । सविता मिश्रा
27/9/1989

अक्तूबर 14, 2014

सोने के फायदे

सोना है तो जाग जाइये
जगने के लिय सोते ही रहिये
सोते रहे है इसी लिय जगा रहे है
हम तो चैन से रहने का  गुर बता रहे है
जागते रहेंगे महंगाई डायन डराएगी
सोते रहेगे खर्च ही कहा कराएगी
सोते रहने से बड़े है फायदे
पानी बिजली राशन सब बचे
बचाना है सब तो सोते ही रहिये
जाग भी जाये तो सोने का ढोंग करिये
कलह लड़ाई सबसे दूर रहेगें
बोलेगें नहीं तो कैसे फंसेगे
जाम की जद्दोजहद से बचगें
तू तू मैं मैं के होने से दूर रहेंगे
भीड़ की ना होगी धक्कामुक्की
सड़कें भी सब सुनसान होगी
बलात्कार हत्या डकैती से बचेगें
और तो और ये  सब अपराधकर्ता भी
चादर तान कर  तो सोते रहेंगे
देखा न सोने से कितने है फायदे
पारिवारिक जीवन भी ये सफल बना दे| सविता

अक्तूबर 08, 2014

:( गांधी नोट :(


:)===========:)
अपनी आबरू बेच जब
हाथ में नोट आया
लड़की ने नोट पर
अंकित गांधी के चित्र पर
अपनी बेबस नजरों को गड़ाया
गांधी बहुत ही शर्मिंदा हुए
अपनी खुद की नजरों को
जमीं में गड़ता पाया
नहीं मिला पायें नजर
आंसुओं से डबडबाई नजरों से
देश के हालत पर चीत्कार से उठे
पर सुनता कौन|

आग पेट की बुझाने
के खातिर एक औरत
अपनी ही औलाद जब
मजबूर हुई बेचने को
बेचने के उपरांत जो
नोट हाथों में लिया
उसने भी गांधी को घूरा
खूब आंसू बहाया
पर मजबूर थे गांधी भी
नजरें ना मिला सकें
औरत ने तोड़-मरोड़
नोट को ठूंस लिया
अपने ही सीने में सिसकते हुए
उसी सीनें से जिसमें
अब तक उसका लाल
छुप जाया करता था
पेट की आग बुझाने के खातिर|

मेहनत मजदूरी करते
धर दिया ठेकेदार ने
चंद नोट शाम को हाथ
मेहनताने स्वरूप
गांधी छपे उन नोटों को देख
मजदूर व्यंग में मुस्काया
और मन ही मन बोला
वाह रे गांधी क्या तुमने
भविष्य हमारा इसी में देखा था
तू आज उतार दें अपना ऐनक
क्योकि ऐनक में हमें तेरा
दोगलापन नजर आता है
तू खुद गरीबी का चोला ओढ़
हम गरीबों को मुहं चिढ़ाता हैं और
अमीरों के घर लाखों-करोड़ों की
नोटों में पा खुद को
हँसता-खिलखिलाता हैं|

दस साल के एक नौनिहाल की
फीस रूप में चंद गांधी नोटों को
ना दे पाने की वजह से
जब रुक जाती हैं पढ़ाई उसकी
फीस के चंद टुकड़े भरने के लिए
दर-दर भटकना पड़ता हैं उसे
भटकने के उपरान्त जब
बीस-पचास के नोट हाथ आते हैं
देख मुस्काता तेरा चेहरा
लगता है उड़ा रहा हैं खिल्ली
तू विदेश से पढ़ लौटा और हमें
सड़े-गले सरकारी स्कूल में भी
चंद गांधी धारी नोट
ना होने की वजह से
ठीक ढंग से पढ़ने को भी नहीं मिलता
वाह रे गांधी क्या यही सपना
हम नौनिहालों के लिय था तूने देखा|

महंगाई के सुरसा रूपी मुहं में
अब कोई कीमत ही नहीं रह गयी
सौ-पचास के नोटों की
तू फिर भी गर्व से छपा हैं उसमें
ऐसा लगता हैं खुद ही शर्मिंदा हैं
इस बढ़ती हुई महंगाई पर
और मुहं छुपा लेना चाहता हैं
सौ-पचास के मुड़े-तूड़े नोटों के बीच
खुद ही बाहर नहीं आना चाहता
कोसता रहता हैं खुद की ही तक़दीर को
भिचा हुआ किसी गरीब की मुट्ठी में रह|

अच्छा हुआ तूनें सिक्कों में
खुद को नहीं छपने दिया
उस पर भारत का गौरव छपा हैं
और किसी पर किसान का प्रतीक
वर्ना और भी शर्मिंदा होता
भिखमंगों के कटोरे में देख
नजरें ना मिला पाता
तब खुद से ही|
पर जब किसी पर्स से सिक्के निकल
गरीब के कटोरे में जाते होगें
कनखियों से उनकी गत
और भारत के गौरव को
गरीबों के कटोरे में खनखनाता देख
यकीं हैं हमें और भी शर्मिंदा होता होगा
सोचता होगा काश मैं सिक्के पर ही होता
नोटों पर भारत का गौरव होता
कम से कम हमारे देश में गौरव को
इतना तो शर्मिंदा ना होना होता|

मेरी उलाहोनों को सुन कर गांधी
बहुत ही शर्मिंदा हुए और बोले
हो सकें तो मेरी आवाज उप्पर तक पहुंचा दो
नोटों के बजाय मुझे सिक्के में ही ढलवा दो| सविता मिश्रा

अक्तूबर 06, 2014

~प्यार का धागा ~

प्यार के धागे को तोड़कर
बिखेर गया था वो
समेट रही हूँ उसे
गांठ पर गांठ डाल
जोड़ रही हूँ
जोड़ने के बाद
सोच में डूबी थी
क्या यह प्यार वही
पुराना प्यार पा सकेगा
अथवा जैसे इस पर
गांठे लग गयी है
उसी तरह उस प्यार पर भी
थोड़ी सी कड़वाहट की
परत पड़ जायेगी
हा शायद कुछ ऐसा ही होगा
क्योकि खोया हुआ प्यार
फिर मिल तो जाता है
पर ये प्यार वो प्यार
नहीं रह जाता है
इस प्यार को प्यार नहीं
समझौते का नाम दे दिया जाता है |
||सविता मिश्रा ||

अक्तूबर 02, 2014

तीन सीख (गाँधी के तीन बंदर)


गाँधी जी ने
हमारा भविष्य ताड़ लिया था
तभी तो
तीन बंदरों का उदाहरण दिया था |
कुछ भी गलत होता हुआ देखो
पहले बन्दर को याद रखो
गलत देखकर भी अनदेखा कर
धीरे से चलते बनो |

तुम्हारे किसी भी कार्य पर
कोई कुछ प्रतिक्रिया करे
तो दूसरे बन्दर को याद करो
सुनकर भी अनसुनी कर
चुपके से वहां से खिसक लो |

यदि कोई क्रोध में भर
गालियाँ तुम्हें दे तो
 शांत हो
तीसरे बन्दर को याद करो
ना बोलने में ही भलाई है
यह भाव रखो
ठिठको नहीं!
आगे की ओर कदम भरो |

यदि अपने जीवन में
यह तीन सीख ले ली
तो समझो!
तुमसे ज्यादा ज्ञानी,
सहनशील एवं प्रगतिशील
कोई भी नहीं |

सविता मिश्रा
२४ जनवरी २०१२ से भी पहले लिखी होगी 

~ सोनचिरैया ~

सभी को श्री लाल बहादुर शास्त्री जी
के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनायें!!
वे देश पर कुछ साल शासन करें होते तो शायद किसानो की हालत यह ना होती ..!!

जय जवान जय किसान नारा देने वाला आज आँसू बहा रहा होगा स्वर्ग में बैठा ...
तहेदिल से श्रद्धांजली उनको .. !!

Savita Mishra

बार बार तू!
हमको करता रहे तबाह

हताश हो!
भरने वाला नहीं हूँ मैं आह

हार मान लू!
ऐसा नहीं हूँ मैं किसान

बूढी हड्डियों में!|
अब भी हैं बाकी जान |

इस खेत में सोना उगा कर
दिखालाउँगा तुझको

कितना भी कष्ट पहुँचा
हरा नहीं पायेगा मुझको|

तू क्या सोचता है
 अपने मन की
तू कर लेगा
अनचाही बरसात-सुखा
इन प्राकृतिक आपदाओं से डरा देगा|


धरती का सीना चीर उगायेंगे
हम तनिक सोना
नहीं हैं अब हमको अपनी
पहचान यह खोना
कृषि प्रधान देश है यह
परचम हम ही लहरायेंगे

सोनचिरैया भारत ही हैं
विदेशियों से ही कहलवायेंगे!!

हताश हो बेच दी
चंद किसानों ने जो जमीनें

हममें जब तक हैं दम
हम न ऐसा होने देंगे

धरती को अपनी मेहनत से
मजबूर कर
देंगे!!

तुम हमको केहि विधि
ना हताश कर पाओंगे

कैसे भी हमें इसी मिट्टी में
मेहनत करते
पाओंगे!

बरसो या ना बरसो
हम कुछ जुगाड़ कर जायेंगे

इसी बंजर भूमि पर हम
फिर से सोना उगा
येंगे |
...सविता मिश्रा

अक्तूबर 01, 2014

फर्क पड़ता है ~

औरतों पर भी -
बहुत फर्क पड़ता है
देश के आर्थिक,राजनीतिक
कूटनीतिक हलचलों का
और सामाजिक व्यवस्था का!

देश में हो रहे
हर उथल पुथल का
उनपर भी तो
बहुत फर्क पड़ता है!

धूप सेंकती भी वो
इसी ऊहापोह में होतीं हैं
क्या आदमी गया जो घर से
लौट आएगा शाम को
बिना किसी मार-पीट के
बिना किसी की जिल्लत सहे!

कहीं कोई दंगा ना हो जाये
फंस जाये जान आफत में
जब तक आतें नहीं घर
पति-बच्चें और रिश्तेदार
तब तक जान होती है हलक में !!

पर समझाए किसे
नहीं समझने को तैयार
समाज के ठेकेदार
कि औरतें भी सोचतीं हैं
समझ सकतीं हैं देश के हालत
  वो वीरांगना हैं 
रानी लक्ष्मी बाई सरीखी
वो रीढ़ हैं देश की !!

कैसे यह पुरुष समाज
उन्हें अलग थलग कर
अक्सर ही देखता है|
फर्क पड़ता है उन्हें भी
समाज की हर
जायज-नाजायज
गतिविधियों से !!

नहीं एडियां रगड़तीं
नहीं गपियातीं अब
गर्मियों की दोपहरी में
नहीं बस निंदा रस पान करतीं
फुर्सत में वो भी सोचतीं हैं
कैसे फांसी पर चढ़े कसाब
कैसे देश का हो दिनोंदिन उद्धार
कौन कर रहा देश की फिज़ा खराब !!

भ्रष्टाचार तो उनके घर का
बजट ही गड़बड़ा देता है
तो कैसे ना फर्क पड़े
 वो अब मुगालते में नहीं जीतीं हैं !

बल्कि हर पल, हर क्षण
देश, समाज के भी
कल्याण की सोचतीं हैं
पर नहीं समझेगा यह समाज
वह गलतफ़हमी है कि
औरतें अब भी कमजोर
और चिंतन-हीन हैं |
++सविता मिश्रा ++