जीवन की आपा धापी में नारी
अपना ही जीवन जीना भूल गयी |
कभी बेटी-बहन, पत्नी-माँ बनकर जिया
अपने ही जीवन को तूल देना भूल गयी |
मानव जीवन में नारी की कोई कद्र नहीं
अग्रणी समाज में भी नारी स्वतन्त्र नहीं |
वसूलों की जंजीरों में हुई जकड़ी
दुखित हुई जो तनिक भी अकड़ी |
खुशियाँ सारी दूजो पर लुटाती फिरती
गम को अपने सीने से लगा दफ़न करती |
सुख-सम्पदा सब दूजों में ही बाँट देती
दुसरे की कमियों को अपना बता लेती |
ऐसे ही तो नारी जीवन यापन कर रही
जीवन के झंझावतों को सहती जी रही |
सब कुछ सह-सुनकर भी
सदैव तो चुप ही रह रही|
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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अपना ही जीवन जीना भूल गयी |
कभी बेटी-बहन, पत्नी-माँ बनकर जिया
अपने ही जीवन को तूल देना भूल गयी |
मानव जीवन में नारी की कोई कद्र नहीं
अग्रणी समाज में भी नारी स्वतन्त्र नहीं |
वसूलों की जंजीरों में हुई जकड़ी
दुखित हुई जो तनिक भी अकड़ी |
खुशियाँ सारी दूजो पर लुटाती फिरती
गम को अपने सीने से लगा दफ़न करती |
सुख-सम्पदा सब दूजों में ही बाँट देती
दुसरे की कमियों को अपना बता लेती |
ऐसे ही तो नारी जीवन यापन कर रही
जीवन के झंझावतों को सहती जी रही |
सब कुछ सह-सुनकर भी
सदैव तो चुप ही रह रही|
सविता मिश्रा 'अक्षजा'
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