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अक्तूबर 21, 2016

~~मन को जो भाये वो करिए~~मन की बात या फिर कहें गुबार :)


जो मन भाये वो करिए, बस मर्यादा में रहिये|
तोड़ने की जिद न हो, हों सकें तो जोड़ते रहिये|

कोई भी व्रत-उपवास अच्छा ख़राब नहीं होता है| न हमारी रीतियाँ- परम्पराएँ अच्छी -ख़राब है!! हाँ इसे न मानने वाले खराब और मानने वाले अच्छा कहते रहतें हैं गाहे-बगाहे|
फेसबुक पर हुई व्रतों की निंदा- और गुणगान साबित करते है कि सब तरह की सोच वाले हर कहीं पर हैं | घर हो, समाज हो, चाहे यह मायावी दुनिया|
करवाचौथ और तीज दोनों ही व्रत अपने आप में महत्वपूर्ण है| तीज जहाँ बिहार पूर्वी उत्तर प्रदेश में ज्यादा मान्य है वही करवाचौध टीवी के कारण पुरे भारतवर्ष में प्रचलित हैं| तीज जैसा महत्वपूर्ण व्रत पश्चिम की तरफ किसी को पता ही न शायद|
कितने सारे व्रत बच्चों और पति के सुख,समृद्धि, आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य के लिए रखे जाते हैं| कई व्रत प्रचार-प्रसार के अभाव में न जाने किस घुप्प कुँए में जा फंसे हैं|
अतः ऐसा लगता है कि महिमामंडन पर सब निर्भर| जिन्दगी से जुड़ी चीजें हो या समाज से जुड़ी, प्रचार मायने तो रखता हैं!! जिसके बारे में कोई बतायेगा नहीं , जागरूक नहीं करेंगा, कोई नहीं जान पाएंगा | बुराई- हो या गुणगान दोनों ही प्रचार का हिस्सा बनते है, न कि किसी रीति-कुरूति पर रोक लगाते है| नास्तिक टाइप के लोगों को भी किसी के विश्वास पर कुठाराघात कभी नहीं करना चाहिए| क्योंकि जिसका विश्वास जिस किसी में है, वह करने में बुराई है ही न| चाहे वह तथाकथित पाखंड ही क्यों न हो|
व्रत तो हमारे जीवन में रंग भरते| व्रत रहे न रहे कोई परन्तु आडम्बर का नाम न दे इसे ...| बहुत दुःख होता है, यह सुन -देखकर..| यह बात सही हैं कि सारे व्रत पहले भी रखे जाते रहें हैं, आज बस इनका महिमामंडन हो गया है| अच्छा है न आजकल की नयी पीढ़ी सहर्ष स्वविकार कर रहीं हैं| कितना भी हम कहें कि नयी पीढ़ी परम्पराओं से दूर भाग रही, परन्तु न जाने क्यों ऐसा लगता नहीं है| मंदिरों में भीड़, बजारवाद के कारण ही सही बाजारों में त्यौहार -व्रत के दिन भीड़ साबित करती है कि नयी पढ़ी और ज्यादा अधीरता से हमारी पुरानी परम्परा की नींव को मजबूत कर रहीं हैं|
अभी बीते समय में यहाँ फेसबुक पर पितृपक्ष को लेकर जब जंग सी छिड़ी थी| माता-पिता का तिरस्कार करके, उनके मरने के बाद श्राध को आडम्बर कहके औचित्य पर सवाल उठाया रहा था| जरुरी थोड़े जो अपमान कर रहें थे, वह यह आडम्बर करते हैं | श्रद्धा से जो अपने माँ-बाप का श्राध कर रहा है, जाहिर है उसे बहुत बुरा लगता होगा ऐसा कुछ पढ़कर,सुनकर|
सवाल था कि जो आदमी जीते जी सुख शांति न दिया वह मरने पर क्या करेगा शन्ति के लिए| लेकिन शायद अपने माता-पिता का तिस्कार करने वाले लोग भी डर से करते कि कहीं माँ बाप भूत बन न आए...| सब दिखावा होता या डर या मन की सन्तुष्टि!! राम जाने!! पर यह उनकी अपनी इच्छा हैं| वैसे भी भय बिन प्रीत हुई कब है!! वह जिन्दा रहते हो या मरने के बाद, परोक्ष रूप से तो भय ही छुपा होता हैं न | चाहे समाज का भय या फिर मान्यताओं का|
हर धर्म के लोगों में श्रद्धा होती है अपनी-अपनी ढंग की | हिन्दू धर्म में भी वही श्रद्धा परम्परा चली आ रही है!! फिर हिन्दुओं में आपस में ही इतना विरोध क्यों? यह सच है कि कई लोग कई परम्पराओं, रीतियों ( कुरीतियों नहीं कहेंगे) को नहीं मानते, पर मानने वालों का विरोध भी नहीं करना चाहिए| हाँ तरीके से यानि मर्यादा विरुद्ध हो तो टिप्पड़ी जरुर करें परन्तु उनका विरोध हरगिस नहीं करियें !!
माना कई चीजें अन्धविश्वास है.हमारी नजर में , दूसरों की नजर में हो सकता है वह विश्वास हो| हम जिस चीज पर विश्वास कर रहे हो सकता है दुसरा हमें अन्धविश्वासी मान रहा हो| कुल मिला के अपनी राय रखना अलग बात है, परन्तु किसी के विश्वास को कटु शब्दों में अन्धविश्वास कह देना अलग बात|
मन की शांति के लिए उस अन्धविश्वास में यदि कोई विश्वास जमाये है, तो बुरा क्या हैं ..? उससे आपको कोई तकलीफ तो है न| मन के संतोष के लिए ही तो आदमी इतनी भागादौड़ी करता है| किसी को अपनी परम्पराएँ अपनी रीति को निभाने से संतोष मिल रहा, तो बुराई भी न| उनके संतोष में आपको बुराई भले नजर आयें पर यह उनके लिए शायद बड़े पुण्य का काम हो| अतः जब तक किसी भी परम्परा से किसी दुसरे को शारीरिक तकलीफ न हो, उसे करने से रोकने का हक किसी को भी नहीं है|
ऐसे तो पितृपक्ष पर सवाल उठाने वाले मरने के बाद क्रियाकर्म जो होता, फिर जो १३ दिन का पूरा कार्यक्रम होता है, उस पर भी सवाल उठा सकते हैं| सवाल उठाने के लिए तो हिन्दूधर्म क्या, सभी धर्मो में हजार मुद्दे है| यहाँ हमारी युवा पीढ़ी अवश्य भटक गयी है ! शायद उसका कारण है समय की कमी| वह हर काम फटाफट चाहती है, पर यह तेरही तक का शोक कार्यक्रम जल्दी तो नहीं ही निपट सकता| हां साल भर के झंझट से वह मुक्त होना चाहती है| फिर भी ठीक है, जितना श्रधा से हो जाये अच्छा है| यह उसकी भी श्रधा की बात हैं न|
सब चीजो पर सवाल उठाने सवाल वाले उठा सकते है..!! व्याह हो, मुंडन हो, जनेऊ हो, व्रत हो, पूजा हो सब में दिखावा भारी पड़ रहा| शादी व्याह में होने वाले पांच -छ फंक्शन!! ..सब आडम्बर ही तो है ..| किन्तु सबका प्रतिकार तो नहीं होना चाहिए न | आपके लिए आडम्बर परन्तु दुसरे के लिए वह पल ख़ुशी, सौहार्द के पल होते हैं|
पूजा पाठ ...के लिए 'रैदास तो कह गयें हैं कि मन चंगा तो कठौती में गंगा ..' लेकिन फिर भी सभी धर्म के धर्म स्थलों पर इतनी भीड़ क्यों होती फिर ..?? सब विश्वास और भावनाओं के कारण ही न|
ग़रीब तो सबसे बड़े आडम्बरी ही होते...| ऐसा स्वांग रचते जैसे बड़े बीमार और निहायत ही गरीब हैं, पर लाखों के मालिक होते कई, फिर भी भीख मांगते फिरते ...| ऐसे मुहँ बना के सामने हाथ पसार खड़े हो जाते कि आदमी अपनी हाड-पसीने की कमाई उन्हें मुफ्त में खिला दे..| कभी कभी लगता है क्यों खिलाये मुफ्त, इन हट्टे-कट्टो को ..| फिर भी आडम्बर है जहान में ..| परम्परा भी है गरीबों को भोज कराने की| कई शिद्दत से निभाते है इसे भी ..| इसी कारण शायद आजकल हर दूसरा आदमी एनजीओ खोल के व्यापार करने लग पड़ा है ....| दान देने वाले उन्हें दान देकर पुण्य कमा रहे हैं |
व्यक्ति और परिस्थिति के अनुसार आडम्बर, श्रद्धा और श्रद्धा आडम्बर कहलाता रहता| फ़िलहाल हमारी परम्पराएँ कुछ तो कहती ही है..राज गहरा है, विरोधी लोग क्या समझे, जब समर्थक भी सही से समझ न पाए अब तक| परम्पराओं को अन्धविश्वास, आडम्बर कहने की दौड़ में हम शायद मूल को भूल, शूल की राह तैयार कर रहे| मर्यादा में रह परम्पराएँ निभ रहीं हैं तो निभाने दीजिए न|
'जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तीन तैसी' ! लोग हर बात पर यह घिसापिटा राग अलापते हैं! आज हम अलाप रहें हैं, अपने इस लेख में| आपको जहाँ भी लगे हम गलत है इस कहावत को हम पर थोपते जाइए |

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