लकीर पर चलने वाले
बात कब किसकी माने है
बोलो कुछ आस्था विरुद्ध तो
भृकुटी हम पर ही ताने है|
क्या करें मौन रह सब कुछ
सह सुन हम रो पड़ते है
अपनी आस्थाओं को हम यूँ ही
क़दमों में रौद देते है|
आस्था के नाम पर लगती है
मंदिर मस्जिद में खूब भीड़
नहीं किसी का ख्याल करतें
मिलेगें जैसे इन्हें ही प्रभु सीना चीड़|
धक्का मुक्की कर बढतें है
प्रभु के नजदीक ऐसे
प्रभु मिल ही जायेगें इनकों
जो दूसरो को सतायेगे जैसे|
आस्था के नाम पर यही खिलवाड़
और भक्त जाये चाहे भाड़
अक्सर देखा है प्रभु मिलन को देते धक्का
अंधभक्तों से पल्ला पड़ाऔर दिमाक सटका|...........सविता मिश्रा
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