1. उन पर खुशियाँ अपनी लुटाते-लुटाते,
न जाने क्यों सिहर सी जाती हूँ मैं।
2. अपने दिल के घाव दिखाते-दिखाते,
न जाने क्यों ठहर सी जाती हूँ मैं।
3. अपने ज़ख्मों को सहलाते-सहलाते,
न जाने क्यों विफर सी जाती हूँ मैं।
४..पुराने घावों को कुरेदते-कुरेदते ,
ना जाने क्यों नासूर बना देती हूँ मैं |
५..नैनन अश्रु मोती बहाते-बहाते ,
अब प्रस्तर-प्रतिमा सी खुद को पाती हूँ मैं |
६..सारे जुल्मों-सितम सहते-सहते ,
ना जाने क्यों विद्रोह पर उतर आती हूँ मैं |
७..खुशियों के समुद्र में गोता लगाते-लगाते ,
ना जाने क्यों कमजोर सी हो जाती हूँ मैं |
८..चेहरे से गम को छुपाते-छुपाते ,
ना जाने क्यों भावहीन हो गयी हूँ मैं|
९..सभी जिम्मेदारी का बोझ उठाते-उठाते ,
ना जाने क्यों निढ़ाल (थक) सी हो जाती हूँ मैं |
१०..सविता चाँद बनते-बनते,
अपना वजूद ही खो देती हूँ मैं|
११..अपने भूले बिसरे अस्तित्व की तलाश में,
अपने आप को ही नहीं पहचान पाती हूँ मैं।"
||सविता मिश्रा ||
मौत के आगोश में समाते- समाते,
ना जाने क्यों ठहर सी जाती हूँ मैं।
प्यार के आगोश में सिमटते-सिमटते,
ना जाने क्यों बिखर सी जाती हूँ मैं।
अपने ही जख्मों पर मरहम लगाते-लगाते,
ना जाने क्यों टूट-सी जाती हूँ मैं।
देख आईना अपने को पहचानते-पहचानते,
ना जाने क्यों स्वयं को विवश सी पाती हूँ मैं।
कमियां अपनी गिनाते-गिनाते,
अपने से ही रूबरू नहीं हो पाती हूँ मैं।
बिसात क्या है मेरी? हूँ कौन मैं ?जानते-जानते,
अपनी ही औकात समझ नहीं पाती हूँ मैं।.
न जाने क्यों सिहर सी जाती हूँ मैं।
2. अपने दिल के घाव दिखाते-दिखाते,
न जाने क्यों ठहर सी जाती हूँ मैं।
3. अपने ज़ख्मों को सहलाते-सहलाते,
न जाने क्यों विफर सी जाती हूँ मैं।
४..पुराने घावों को कुरेदते-कुरेदते ,
ना जाने क्यों नासूर बना देती हूँ मैं |
५..नैनन अश्रु मोती बहाते-बहाते ,
अब प्रस्तर-प्रतिमा सी खुद को पाती हूँ मैं |
६..सारे जुल्मों-सितम सहते-सहते ,
ना जाने क्यों विद्रोह पर उतर आती हूँ मैं |
७..खुशियों के समुद्र में गोता लगाते-लगाते ,
ना जाने क्यों कमजोर सी हो जाती हूँ मैं |
८..चेहरे से गम को छुपाते-छुपाते ,
ना जाने क्यों भावहीन हो गयी हूँ मैं|
९..सभी जिम्मेदारी का बोझ उठाते-उठाते ,
ना जाने क्यों निढ़ाल (थक) सी हो जाती हूँ मैं |
१०..सविता चाँद बनते-बनते,
अपना वजूद ही खो देती हूँ मैं|
११..अपने भूले बिसरे अस्तित्व की तलाश में,
अपने आप को ही नहीं पहचान पाती हूँ मैं।"
||सविता मिश्रा ||
मौत के आगोश में समाते- समाते,
ना जाने क्यों ठहर सी जाती हूँ मैं।
प्यार के आगोश में सिमटते-सिमटते,
ना जाने क्यों बिखर सी जाती हूँ मैं।
अपने ही जख्मों पर मरहम लगाते-लगाते,
ना जाने क्यों टूट-सी जाती हूँ मैं।
देख आईना अपने को पहचानते-पहचानते,
ना जाने क्यों स्वयं को विवश सी पाती हूँ मैं।
कमियां अपनी गिनाते-गिनाते,
अपने से ही रूबरू नहीं हो पाती हूँ मैं।
बिसात क्या है मेरी? हूँ कौन मैं ?जानते-जानते,
अपनी ही औकात समझ नहीं पाती हूँ मैं।.
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना...
एक टिप्पणी भेजें