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दिसंबर 17, 2014

+कोई रिश्ता नहीं फिर भी +

कल ही की तो बात है
बैठे बैठे मार रही थी मच्छर
उन्हें मरा देख हुई मन में बेचैनी सी
बुदबुदा लेती मन ही मन
खामखा देख आई
तेरी जान आफत
कुछ दिन या महीने जीने की
ललक थी तेरी
पर मेरे दिमाग की बत्ती गुल थी|

अपना ही खून था पर
उनके शरीर से बहता देख
दिल चीत्कार कर रहा था
ना जाने क्यों एक अजीब सी
घुटन भर रहा था जेहन में 
वह हमें थोड़ा सा ही
नुकसान पहुंचा रहा था
जीने की जद्दोजहद करता
और मैं उन्हें मृत्युदंड के
फरमान सुना रही थी
बिना किसी जिरह के|

दिमाग में १६ दिसम्बर की
पेशावर में घटी घटना
ना जाने क्यों खटक रही थी
बार बार दस्तक दें रही थी
दोनों ही घटनाओं में क्या रिश्ता
पर न जाने क्यों दिल बार-बार
दोनों घटनाओ को आपस में
मिलान करने को कह रहा था |

दिल को दिमाग समझा रहा था
दोनों का दूर-दूर कोई रिश्ता नहीं
पर दिल मानने को तैयार कहाँ था| सविता

दिसंबर 16, 2014

हायकु

ज्ञान से ज्ञान
अज्ञानी से ज्ञानी
मुर्ख अंजान|

जिज्ञासु प्राणी
उड़ता है गगन
ज्ञान पिपाषु|
ज्ञान पिपाषा
सामने गुरु को पा
हो गयी शांत

ज्ञानी-अज्ञानी
शब्द निकसे मुख
हो जाता ज्ञान |

मन उन्मुक्त
छूने को उत्सुक हैं
ज्ञान गगन|

ज्ञान परिंदा
पंख फड़फडाता
सध उड़ता|


ले जाता सदा
अधकचरा ज्ञान
दुर्गति ओर| सविता

दिसंबर 15, 2014

बिसात क्या है मेरी --

1. उन पर खुशियाँ अपनी लुटाते-लुटाते,
न जाने क्यों सिहर सी जाती हूँ मैं।

2. अपने दिल के घाव दिखाते-दिखाते,
न जाने क्यों ठहर सी जाती हूँ मैं।

3. अपने ज़ख्मों को सहलाते-सहलाते,
न जाने क्यों विफर सी जाती हूँ मैं।

४..पुराने घावों को कुरेदते-कुरेदते ,
ना जाने क्यों नासूर बना देती हूँ मैं |

५..नैनन अश्रु मोती बहाते-बहाते ,
अब प्रस्तर-प्रतिमा सी खुद को पाती हूँ मैं |

६..सारे जुल्मों-सितम सहते-सहते ,
ना जाने क्यों विद्रोह पर उतर आती हूँ मैं |

७..खुशियों के समुद्र में गोता लगाते-लगाते ,
ना जाने क्यों कमजोर सी हो जाती हूँ मैं |

८..चेहरे से गम को छुपाते-छुपाते ,
ना जाने क्यों भावहीन हो गयी हूँ मैं|

९..सभी जिम्मेदारी का बोझ उठाते-उठाते ,
ना जाने क्यों निढ़ाल (थक) सी हो जाती हूँ मैं |

१०..सविता चाँद बनते-बनते,
अपना वजूद ही खो देती हूँ मैं|

११..अपने भूले बिसरे अस्तित्व की तलाश में, 
अपने आप को ही नहीं पहचान पाती हूँ मैं।"
||सविता मिश्रा ||
मौत के आगोश में समाते- समाते,
ना जाने क्यों ठहर सी जाती हूँ मैं।
प्यार के आगोश में सिमटते-सिमटते,
ना जाने क्यों बिखर सी जाती हूँ मैं।
अपने ही जख्मों पर मरहम लगाते-लगाते,
ना जाने क्यों टूट-सी जाती हूँ मैं।
देख आईना अपने को पहचानते-पहचानते,
ना जाने क्यों स्वयं को विवश सी पाती हूँ मैं।
कमियां अपनी गिनाते-गिनाते,
अपने से ही रूबरू नहीं हो पाती हूँ मैं।
बिसात क्या है मेरी? हूँ कौन मैं ?जानते-जानते,
अपनी ही औकात समझ नहीं पाती हूँ मैं।.

दिसंबर 12, 2014

कुछ क्षणिकायें.


...६/८४
१-चले थे समुद्र की गहराई को नापने,
पर स्वयं को ही समुद्र से गहरा पाया |

२-पानी में डूबते वही जो तैरना जाने,
तैरते वही जो स्वयं को निडर माने

३-दिखाने चले थे उन्हें डगर हम,
पर स्वयं को ही भटका पाया |
रास्ता भटक गये जब हम ,
तो उन्होंने ही हमें रास्ता दिखाया |

नवंबर 29, 2014

"सुनहले ख़्वाब बस"


दिल में तो धड़कती ही हूँ मैं
पर! साँसों में भी तेरे
फ़ैल जाना चाहती हूँ मैं 

किसी ने तीसरी बटन
किसी ने दूसरी
किसी ने सिर्फ बटन कहकर ही
ख्याली पुल कर लिया तैयार
अपने पति का सानिध्य पाने को........

मैंने भी सोचा ...तोड़ दूँ मैं भी
तुम्हारे शर्ट की पहली बटन
क्योंकि मैं साँसों में तुम्हारे
बस जाना चाहती थी
टांकने को बटन जब तुम कहो
तुम्हारी साँसों को
बिलकुल पास आकर
महसूस कर सकूँ मैं

तुम्हारी आँखों में झांक सकूँ प्यार
तुम्हारी साँसों से अपनी साँस को
मिलाकर साँसों की प्यारी सी
करूँ एक खूबसूरत डोर तैयार
साँसों में मेरे बस जाओ तुम
अपने साँसों के जरिये
तुम्हारे दिल की धड़कन
महसूस करूँ मैं करीब से
जिसमें बसती हूँ
शायद ! सिर्फ मैं !

बटन हाथो में लिए
तुम तक पहुँचने के
खयाली पुल बना रही थी मैं
तभी एक झटका सा लगा
तुम्हारे गुस्से का शिकार हो गया
सपना मेरा प्यार भरा
टूटी है बटन वर्दी की
कैसे पहनू मैं ?
गूंजी कानो में एक तीखी आवाज !

तुम्हारी लापरवाही के कारण
समय पर नहीं पहुँच पाउँगा
मोबाईल फोन कान खा रहा है
ऊपर से अधिकारी सिर चढ़ रहे हैं
बड़बड़ा रहे थे जब तलक वो
जल्दी से रात जो धोयी थी वर्दी
बहाते-बहाते आँसू झट प्रेस करके
उनके हाथो में थमा दी

आँसुओ को पास जाने से पहले ही
जब्ज कर लिया आँखों में ही मैंने
क्योंकि पता है यह मुझे
तुम्हारें लिए इन आँसुओ की
कोई भी कीमत नहीं
तुम्हें अपनी नौकरी से ज्यादा
कोई और चीज प्यारी भी नहीं !

रोज ही ऐसे कई सपनें
चकनाचूर हो जाते हैं
तुम्हारी मजबूरियों को समझती हुई मैं
अपने इन सपनों को
सुनहले ख्बाब की
अपनी छोटी सी पिटारी में
बंद करके रख देती हूँ मैं टांड पर |

सपनों की अपनी बगिया में जो
नन्हें- सुंदर फूल सजाये होते हैं
वो समयाभाव में अक्सर ही तो
असमय ही मुरझा जाते हैं | सविता मिश्रा

प्रेम पर भी लिखने चलो तो अंत जाके ना जाने कहाँ का कहाँ हो जाता है उफ़ मेरी कलम तू क्यों नहीं चलती मेरे ही इशारे पर..... हमारी भावनायें (सविता मिश्रा)

नवंबर 24, 2014

मुर्ख -

मुर्ख होता तो
समझ सोच कर
हर एक कदम

संभल संभल कर
सावधानी से बढ़ाता
पर गलती से
समझदार समझ बैठा
ओंधे
मुहं गिरा जब
उठाने को हाथ कम
हंसी उड़ाte daant jtada dikhe
समझदार था
अतः बहुत शर्मिंदा हुआ
मुर्ख होता तो उठता
हँस खुद पर ही
फिर आगे को
बढ़ चलता । सविता

+कन्धा +

इतनी ज्यादा
मोटी हो रही है
कौन ढ़ोंयेगा इन्हें
कंधो पर अपने !
एम्बुलेस मंगा भेजवा देंगे
चिता नहीं अपितु
शवदाह गृह में जलवा देंगे |
tu chinta n karo
jhnjht साड़ी nitva|
आँख चुराते हुए
हाथों से अपने
मुहं छुपाते हुए
बोल रहा था वो!
शायद शर्म तनिक बाकी थी !

बीबी इशारा
करते हुए बोली
बूढ़ी भले ही हैं
माँ तुम्हारी पर
कान बड़े तेज हैं
धीरे बोलो तनिक
लेंगी सुन तो
ज़ायदाद से
हो जाओंगे बेदखल !

सुनकर भी बूढ़ी माँ ने
कर दिया अनसुना |
आकर कमरे में
विफर पड़ी बुढऊ पर अपने !

तुम तो स्वर्ग पधार गएँ
छोड़ मुझे मझधार
बेटे समझते है भार !
दो बेटे और दो दामाद
चार कंधो पर जाने का था अरमान
बच्चों के मिज़ाज देख
जैसे अब ये मुमकिन नहीं !

अतः तुम्हारी बात
टाल रही हूँ
ज़ायदाद सारी मैं
विधवा आश्रम को
भेंट कर रही हूँ !
शरीर की भी
नहीं करवानी हैं
इनसे दुर्गति
इसे भी मैं अभी ही
रुग्णालय को
दान कर रही हूँ !

जिन्हें कंधो पर बैठा
बड़ा किया हमने
उनके कंधो का हल्का
आज भार कर रही हूँ | सविता मिश्रा

नवंबर 16, 2014

माँ तुम कहीं नहीं जाती हो


एक उम्र ढलने के बाद अपने आप अपनी बेटी के लिए अपनी ही माँ की आदतें आ जाती हैं।...... :)

माँ तुम कहीं नहीं जाती हो
बेटी के अस्तित्व में ही बस जाती हो |

माँ तुम
तब तो बिल्कुल नहीं भाती हो
जब मेरी बेटी किशोरावस्था की
दहलीज को लाँघती है
मुझमें बसी तुम तब उसको
उलजुलूल नसीहतें देने लग जाती हो।

जब नातिन जवान हो जाती है
तुम्हारा अस्तित्व जाग जाता है
जो छुपा बैठा होता है
अपनी बेटी के ही अन्दर !

कितनी भी नसीहतें दूँ
नये जमाने की दूँ मैं दुहाई
समझाऊं कितना भी मन को
पर तुम विद्रोह कर देती हो
दोष तुम्हारा भी नहीं
तुम माँ जो ठहरी |

माँ तुम कहीं नहीं जाती हो
यहीं मेरे अस्तित्व में
अपनी बेटी के भीतर
बसी रह जाती हो |

चिता भले जला दी गयी हो तुम्हारी
पर अपनों की चिंता
सताती रहती है तुमको
सुलगती हुई चिंगारी सी तुम
मेरे ही अन्दर सोयी पड़ी हो!

यौवन की दहलीज पर
रखते ही कदम नातिन के
तुम भड़क जाती हो
अस्तित्व में जो सोयी पड़ी थी
एकबारगी जाग जाती हो !

मेरी बिटिया कहती है
कि माँ तुम बदल गई हो
किस्से जो नानी के सुनाती थी कभी
खुद ही तुम उसी में ढल गयी हो।

सविता मिश्रा 'अक्षजा'

अक्तूबर 28, 2014

आप ही बताइए~

बचा लिया मैंने
जलती हुई  एक
अधजली औरत को
पूरी जलने से 
अधजली
इसलिए कि मैं
उसकी करनी की उसे
चाहती थी देना सजा|
अब आप ही बताइए?
मैं दयावान या निर्दयी।

एक बच्चे को मैंने
बचा लिया दुर्घटना से
क्योंकि वह
बेटा था अमीर बाप का
गरीब के लिए तो मैंने
जान की बाजी अपनी
नहीं लगाईं थी कभी।
अब आप ही बताइए?
मै स्वार्थी हूँ या फरिश्ता।

मैंने एक इंसान की
बड़ी ही निर्दयता पूर्वक
कर दिया क़त्ल
वह इस लिए कि
मुझे लगा कि वह
इंसानियत का दुश्मन है
साल भर की बच्ची का
कर बलात्कार
मार दिया था उसने
उसे क्रूरता से
हैवानियत जाग गयी थी उसमें
उसको परलोक पहुँचाना
अपना फर्ज समझा मैंने |

अब आप ही बताइए ?
मैं इंसान हूँ या शैतान |
मैंने शक के आधार पर
पकड़े हुए निर्दोष आदमी को
बर्बाद हो न जीवन उसका
छोड़ दिया ले- देकर
ले देकर इस लिए कि
उसूल था वह अपना
उसूल पालन के साथ ही
एक जिन्दगी को
होने  से बर्बाद
 बचा लिया  मैंने |
अब आप ही बताइए?
मैं ईमानदार हूँ या घूसखोर ।


अपने घर के पास
छुपे हुए कातिल को
बचा लिया मैंने
क्योंकि लगा मुझे
नहीं किया है उसने क़त्ल
चेहरे के हाव भाव
पढ़ने का हुनर
उम्र के साथ
आ ही गया था हममें|
अब आप ही बताइए?

मैंने कर्त्तव्य-पालन किया
या कानून का उल्लंघन ।

अपने प्रिय नेता पर
लगे आरोप को मैं
कैसे करूँ सहज ही सहन
नहीं कर पाती कभी भी 
आरोप लगाने वाले को
नीच प्रवृत्ति का
व्यक्ति हूँ समझती
क्योंकि मुझे लगता है कि
वह कर ही नहीं सकते ऐसा!
कर सकता है क्या?
कोई आदर्श व्यक्ति
ऐसे निकृष्ट काम कभी।

अब आप ही बताइए?
मैं देशभक्त हूँ या देशद्रोही ।

बिना सोचे समझे मैंने
पंक्तियां कुछ लिखकर
पढ़ दिया आपके आगे
क्योंकि लगता है मुझे कि
अपनी भावनाओं को मैंने
उड़ेल दिया है इन चंद शब्दों में
और लोगों ने शायद
इसी अभिव्यक्ति को
कविता का नाम दिया है।
अब आप ही बताइए?
मैं कवियत्री हूँ या
समय की बर्बादी ।

समय की बर्बादी
आप ही बताइए । सविता मिश्रा
27/9/1989

अक्तूबर 14, 2014

सोने के फायदे

सोना है तो जाग जाइये
जगने के लिय सोते ही रहिये
सोते रहे है इसी लिय जगा रहे है
हम तो चैन से रहने का  गुर बता रहे है
जागते रहेंगे महंगाई डायन डराएगी
सोते रहेगे खर्च ही कहा कराएगी
सोते रहने से बड़े है फायदे
पानी बिजली राशन सब बचे
बचाना है सब तो सोते ही रहिये
जाग भी जाये तो सोने का ढोंग करिये
कलह लड़ाई सबसे दूर रहेगें
बोलेगें नहीं तो कैसे फंसेगे
जाम की जद्दोजहद से बचगें
तू तू मैं मैं के होने से दूर रहेंगे
भीड़ की ना होगी धक्कामुक्की
सड़कें भी सब सुनसान होगी
बलात्कार हत्या डकैती से बचेगें
और तो और ये  सब अपराधकर्ता भी
चादर तान कर  तो सोते रहेंगे
देखा न सोने से कितने है फायदे
पारिवारिक जीवन भी ये सफल बना दे| सविता

अक्तूबर 08, 2014

:( गांधी नोट :(


:)===========:)
अपनी आबरू बेच जब
हाथ में नोट आया
लड़की ने नोट पर
अंकित गांधी के चित्र पर
अपनी बेबस नजरों को गड़ाया
गांधी बहुत ही शर्मिंदा हुए
अपनी खुद की नजरों को
जमीं में गड़ता पाया
नहीं मिला पायें नजर
आंसुओं से डबडबाई नजरों से
देश के हालत पर चीत्कार से उठे
पर सुनता कौन|

आग पेट की बुझाने
के खातिर एक औरत
अपनी ही औलाद जब
मजबूर हुई बेचने को
बेचने के उपरांत जो
नोट हाथों में लिया
उसने भी गांधी को घूरा
खूब आंसू बहाया
पर मजबूर थे गांधी भी
नजरें ना मिला सकें
औरत ने तोड़-मरोड़
नोट को ठूंस लिया
अपने ही सीने में सिसकते हुए
उसी सीनें से जिसमें
अब तक उसका लाल
छुप जाया करता था
पेट की आग बुझाने के खातिर|

मेहनत मजदूरी करते
धर दिया ठेकेदार ने
चंद नोट शाम को हाथ
मेहनताने स्वरूप
गांधी छपे उन नोटों को देख
मजदूर व्यंग में मुस्काया
और मन ही मन बोला
वाह रे गांधी क्या तुमने
भविष्य हमारा इसी में देखा था
तू आज उतार दें अपना ऐनक
क्योकि ऐनक में हमें तेरा
दोगलापन नजर आता है
तू खुद गरीबी का चोला ओढ़
हम गरीबों को मुहं चिढ़ाता हैं और
अमीरों के घर लाखों-करोड़ों की
नोटों में पा खुद को
हँसता-खिलखिलाता हैं|

दस साल के एक नौनिहाल की
फीस रूप में चंद गांधी नोटों को
ना दे पाने की वजह से
जब रुक जाती हैं पढ़ाई उसकी
फीस के चंद टुकड़े भरने के लिए
दर-दर भटकना पड़ता हैं उसे
भटकने के उपरान्त जब
बीस-पचास के नोट हाथ आते हैं
देख मुस्काता तेरा चेहरा
लगता है उड़ा रहा हैं खिल्ली
तू विदेश से पढ़ लौटा और हमें
सड़े-गले सरकारी स्कूल में भी
चंद गांधी धारी नोट
ना होने की वजह से
ठीक ढंग से पढ़ने को भी नहीं मिलता
वाह रे गांधी क्या यही सपना
हम नौनिहालों के लिय था तूने देखा|

महंगाई के सुरसा रूपी मुहं में
अब कोई कीमत ही नहीं रह गयी
सौ-पचास के नोटों की
तू फिर भी गर्व से छपा हैं उसमें
ऐसा लगता हैं खुद ही शर्मिंदा हैं
इस बढ़ती हुई महंगाई पर
और मुहं छुपा लेना चाहता हैं
सौ-पचास के मुड़े-तूड़े नोटों के बीच
खुद ही बाहर नहीं आना चाहता
कोसता रहता हैं खुद की ही तक़दीर को
भिचा हुआ किसी गरीब की मुट्ठी में रह|

अच्छा हुआ तूनें सिक्कों में
खुद को नहीं छपने दिया
उस पर भारत का गौरव छपा हैं
और किसी पर किसान का प्रतीक
वर्ना और भी शर्मिंदा होता
भिखमंगों के कटोरे में देख
नजरें ना मिला पाता
तब खुद से ही|
पर जब किसी पर्स से सिक्के निकल
गरीब के कटोरे में जाते होगें
कनखियों से उनकी गत
और भारत के गौरव को
गरीबों के कटोरे में खनखनाता देख
यकीं हैं हमें और भी शर्मिंदा होता होगा
सोचता होगा काश मैं सिक्के पर ही होता
नोटों पर भारत का गौरव होता
कम से कम हमारे देश में गौरव को
इतना तो शर्मिंदा ना होना होता|

मेरी उलाहोनों को सुन कर गांधी
बहुत ही शर्मिंदा हुए और बोले
हो सकें तो मेरी आवाज उप्पर तक पहुंचा दो
नोटों के बजाय मुझे सिक्के में ही ढलवा दो| सविता मिश्रा

अक्तूबर 06, 2014

~प्यार का धागा ~

प्यार के धागे को तोड़कर
बिखेर गया था वो
समेट रही हूँ उसे
गांठ पर गांठ डाल
जोड़ रही हूँ
जोड़ने के बाद
सोच में डूबी थी
क्या यह प्यार वही
पुराना प्यार पा सकेगा
अथवा जैसे इस पर
गांठे लग गयी है
उसी तरह उस प्यार पर भी
थोड़ी सी कड़वाहट की
परत पड़ जायेगी
हा शायद कुछ ऐसा ही होगा
क्योकि खोया हुआ प्यार
फिर मिल तो जाता है
पर ये प्यार वो प्यार
नहीं रह जाता है
इस प्यार को प्यार नहीं
समझौते का नाम दे दिया जाता है |
||सविता मिश्रा ||

अक्तूबर 02, 2014

तीन सीख (गाँधी के तीन बंदर)


गाँधी जी ने
हमारा भविष्य ताड़ लिया था
तभी तो
तीन बंदरों का उदाहरण दिया था |
कुछ भी गलत होता हुआ देखो
पहले बन्दर को याद रखो
गलत देखकर भी अनदेखा कर
धीरे से चलते बनो |

तुम्हारे किसी भी कार्य पर
कोई कुछ प्रतिक्रिया करे
तो दूसरे बन्दर को याद करो
सुनकर भी अनसुनी कर
चुपके से वहां से खिसक लो |

यदि कोई क्रोध में भर
गालियाँ तुम्हें दे तो
 शांत हो
तीसरे बन्दर को याद करो
ना बोलने में ही भलाई है
यह भाव रखो
ठिठको नहीं!
आगे की ओर कदम भरो |

यदि अपने जीवन में
यह तीन सीख ले ली
तो समझो!
तुमसे ज्यादा ज्ञानी,
सहनशील एवं प्रगतिशील
कोई भी नहीं |

सविता मिश्रा
२४ जनवरी २०१२ से भी पहले लिखी होगी 

~ सोनचिरैया ~

सभी को श्री लाल बहादुर शास्त्री जी
के जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनायें!!
वे देश पर कुछ साल शासन करें होते तो शायद किसानो की हालत यह ना होती ..!!

जय जवान जय किसान नारा देने वाला आज आँसू बहा रहा होगा स्वर्ग में बैठा ...
तहेदिल से श्रद्धांजली उनको .. !!

Savita Mishra

बार बार तू!
हमको करता रहे तबाह

हताश हो!
भरने वाला नहीं हूँ मैं आह

हार मान लू!
ऐसा नहीं हूँ मैं किसान

बूढी हड्डियों में!|
अब भी हैं बाकी जान |

इस खेत में सोना उगा कर
दिखालाउँगा तुझको

कितना भी कष्ट पहुँचा
हरा नहीं पायेगा मुझको|

तू क्या सोचता है
 अपने मन की
तू कर लेगा
अनचाही बरसात-सुखा
इन प्राकृतिक आपदाओं से डरा देगा|


धरती का सीना चीर उगायेंगे
हम तनिक सोना
नहीं हैं अब हमको अपनी
पहचान यह खोना
कृषि प्रधान देश है यह
परचम हम ही लहरायेंगे

सोनचिरैया भारत ही हैं
विदेशियों से ही कहलवायेंगे!!

हताश हो बेच दी
चंद किसानों ने जो जमीनें

हममें जब तक हैं दम
हम न ऐसा होने देंगे

धरती को अपनी मेहनत से
मजबूर कर
देंगे!!

तुम हमको केहि विधि
ना हताश कर पाओंगे

कैसे भी हमें इसी मिट्टी में
मेहनत करते
पाओंगे!

बरसो या ना बरसो
हम कुछ जुगाड़ कर जायेंगे

इसी बंजर भूमि पर हम
फिर से सोना उगा
येंगे |
...सविता मिश्रा

अक्तूबर 01, 2014

फर्क पड़ता है ~

औरतों पर भी -
बहुत फर्क पड़ता है
देश के आर्थिक,राजनीतिक
कूटनीतिक हलचलों का
और सामाजिक व्यवस्था का!

देश में हो रहे
हर उथल पुथल का
उनपर भी तो
बहुत फर्क पड़ता है!

धूप सेंकती भी वो
इसी ऊहापोह में होतीं हैं
क्या आदमी गया जो घर से
लौट आएगा शाम को
बिना किसी मार-पीट के
बिना किसी की जिल्लत सहे!

कहीं कोई दंगा ना हो जाये
फंस जाये जान आफत में
जब तक आतें नहीं घर
पति-बच्चें और रिश्तेदार
तब तक जान होती है हलक में !!

पर समझाए किसे
नहीं समझने को तैयार
समाज के ठेकेदार
कि औरतें भी सोचतीं हैं
समझ सकतीं हैं देश के हालत
  वो वीरांगना हैं 
रानी लक्ष्मी बाई सरीखी
वो रीढ़ हैं देश की !!

कैसे यह पुरुष समाज
उन्हें अलग थलग कर
अक्सर ही देखता है|
फर्क पड़ता है उन्हें भी
समाज की हर
जायज-नाजायज
गतिविधियों से !!

नहीं एडियां रगड़तीं
नहीं गपियातीं अब
गर्मियों की दोपहरी में
नहीं बस निंदा रस पान करतीं
फुर्सत में वो भी सोचतीं हैं
कैसे फांसी पर चढ़े कसाब
कैसे देश का हो दिनोंदिन उद्धार
कौन कर रहा देश की फिज़ा खराब !!

भ्रष्टाचार तो उनके घर का
बजट ही गड़बड़ा देता है
तो कैसे ना फर्क पड़े
 वो अब मुगालते में नहीं जीतीं हैं !

बल्कि हर पल, हर क्षण
देश, समाज के भी
कल्याण की सोचतीं हैं
पर नहीं समझेगा यह समाज
वह गलतफ़हमी है कि
औरतें अब भी कमजोर
और चिंतन-हीन हैं |
++सविता मिश्रा ++



सितंबर 28, 2014

~कृपा बरसा जाना ~


धर्म विरुद्ध ना चले कभी हम
 मार्गदर्शन मैया तू सदा करती रहना ...
 हम तो तेरी ही संतान है
करम सदा हम पर बनाये रखना ..
माना मानुष तन में रह हम खुद पर
 गर्व कर बैठते कभी
 
कभी इतरा जाते है ..

तू तो सर्वव्यापी, सर्वशक्तिशाली हो तुम
जगतजननी और पालन हारी भी हो मैया ....
नादां-सा बालक समझ तू 
 क्षमा कर हमको अपना बना लेना ....
भटक गये जो हम सत्कर्मों से अपने
 सच्ची राह हमें अवश्य ही दिखा जाना ...
मैया तू  कृपा अपनी हम सब पर
इस नवरात्रे अवश्य ही बरसा जाना ......सविता मिश्रा

जय माता दी ...........आप सभी को नवरात्री की हार्दिक बधाईयां .....

===दिल की गहराइयों से === : ++त्यौहार क्यों मनातें हो ++

===दिल की गहराइयों से === : ++त्यौहार क्यों मनातें हो ++: त्यौहार तो अब हम क्या कैसे मना यें सब दिन तो सूखी नमक रोटी खा यें | फिर किसी तरह त्यौहार के खातिर पैसा जुटा यें थैला ले जरा बाजार हो अपना ...

सितंबर 26, 2014

===दिल की गहराइयों से === : ~प्राणवान दुर्गा~

===दिल की गहराइयों से === : ~प्राणवान दुर्गा~: स्कूल के प्रांगण में ही कोलकत्ता से कलाकार आते थे माँ दुर्गा की मूर्ति बनाने| सब बच्चें चोरी-छिपे बड़े गौर से देखते माँ को बनते| ऋचा को तो उ...

सितंबर 18, 2014

गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी ~


गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी
जिह्वा भी गुस्से की ही भेंट चढ़ गयी
एक गुस्से में बोले एक तो दूजा चार बोलता
जिह्वा बेचारी सबके सामने शर्मसार हो गयी |
गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी ............

गालिया बकते एक दूजे को अचानक
आपस में ही मारामार हो गयी
एक ने चलाया हाथ दूजा करे पैर से वार
देखते देखते कुटमकाट हो गयी |
गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी ..........

एक ने सर फोड़ा तो दूजे ने हाथ तोड़ा
आपस में ही काटम काट हो गयी
एक ने लाठी उठाई तो दूजे ने पत्थर चलाये
देखते ही देखते खून की नदिया बह गयी |
गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी ..........

जब तक आपस में लड़ थक कर चूर ना हुए
धुल धरती की चाटने को मजबूर ना हुए
तब तक एक दूजे के खून के प्यासे रहे बने
मानवता यहाँ शर्मसार हो गयी |
गुस्से से गुस्से की तकरार हो गयी ..........

होश आया तो शर्म से आंखे झुक गयी
अपनी करनी पर पश्चाताप बहुत हुआ
गाली गलौज कब हाथापाई पर ख़त्म हुई
गुस्से पर गुस्सा प्रभावी ना जाने कब हुआ
गुस्से से गुस्से की तकरार जब हुई
गुस्से से गुस्से की तकरार हुई
तकरार हुई ....................
+++ सविता मिश्रा +++

सितंबर 09, 2014

~फूल की चीख~

गुड्डी दौड़ी दौड़ी झट फूल तोड़ लाई
माली को भी अपने पीछे पीछे भगाई|

गुड्डी नन्हें नन्हें पाँव से हारी
माली पड़ गया उस पर भारी|

गुड्डी का पकड़ कान उमेठा ही कि
दर्द से गुड्डी खूब तेज चीखी चिल्लाई|

माली बोला देख इतना दर्द तुझे हो आई
सिर्फ कान पकड़ने भर से तू इतना चिल्लाई|

फूल की सोच जिसको तूने बेदर्दी से तोड़ा
डाल से तोड़, यूँ रौंद करके उसको छोड़ा|

गुड्डी ने मानी गलती और बोली
आगे से कभी फूल नहीं तोडूगी|

अब तो दूजो को भी दूंगी यह सीख
फूल तोड़ उसकी निकालो ना चीख|....सविता मिश्रा

सितंबर 03, 2014

अतीत की दस्तक

दरवाजे पर कितने भी
ताले लगा बंद कर दो
पर अतीत आ ही जाता है
ना जाने कैसे
दरवाजे की दस्तक
कितनी भी अनसुनी करो
पर अतीत की दस्तक
झकझोर देती है पट
एक-एक कर यादों के जरिये 
आती जाती है
मन मस्तिक पर पुनः
वही अकुलाहट, हंसी
एक क्षण में आंसू
दूसरे ही क्षण ख़ुशी
बिखेर जाती है
हमारे आसपास
देखने वाला
पागल समझता है
उसे क्या मालुम
हम अतीत के
विशाल समुन्दर में
गोते लगा रहे है
वर्तमान की
छिछली नदी को छोड़|..सविता

सितंबर 01, 2014

शिक्षा प्रेम की- यूँ ही मन की बात


१..शिक्षा प्रेम की पर नफरत बढ़ती रही
जिन्दा थी कभी अब लाश होती रही |
२..बेइज्जत नारी की भरे बाजार कर दी
कोफ़्त उस कामी के प्रति जगती रही |
३..हिम्मत दिखाती तो बचा लेती शायद
दिन रात बस यही सोच सोच कुढ़ती रही |
४..अहम् मार सर झुकाए खड़ी चौराहें पर
बुद्धू कह हम पर ही उँगलियाँ उठती रही |
५..स्नेह का आँचल फैला दिया था अम्बर तक
मासूमियत ही अपनी खता बनती रही |
६...कलियों को मसल फेंक दिया अँधेरे में
दरिंदगी के पाश में कई जकड़ती रही |
७..शैतान के अन्दर का जाग उठा इंसान
हैवानियत फिर भी अपार होती रही |
८...दोजख का भी डर काफूर होता गया
दुनिया बढ़-चढ़ कर पाप करती रही |
९...जींस टाप पहन रहती माँएं फिगर बनाए
ऐसी नार पुरुषों की नजर में चुभती रही |
१०..दूध का कर्ज चुकाना हुआ मुहाल अब
पिलाया क्या दुनिया कुतर्की होती रही |
११.. क्या हाल तूने अपना बना डाला सविता
मजलूम कोई तू खुद को ही कोसती रही |
--००--

उफ़ गर्मी बहुत है रे

उफ़ ! गर्मी बहुत है रे..
उस पर ये बेशर्मी बहुत है रे !
रह-रह के हैसियत दिखलाए
पास खड़ी कितना इतराए 
महंगी-महंगी साड़ी पहने 
तन पर लादे हीरों के गहने 

उफ़ गर्मी बहुत है रे ....
उस पर ये बेशर्मी बहुत है रे !

निशदिन मंहगे पार्लर को जाए
ख़ुद पर लीपा-पोती करवाए
बालों पर कालिख पुतवाए
नाखूनों पर सान चढ़वाए
दाँत भी डाक्टर से चमकवाए
अपनी हर कुरूपता छुपाए
कृत्रिम सुन्दरता पर भी इतराए

उफ़ गर्मी बहुत है रे.....
उस पर ये बेशर्मी बहुत है रे !
पति की चाकरी पर इठलाए
उसको आला अफसर बतलाए
पति न देता हो चाहे कुछ भाव 
कहे जमीन पर रखने न दे पाँव 
कहती फूलों की सेज पर सोए
पति के दुलार में सुध-बुध खोए
उसके प्यार की क़समें खाए
प्रेम की झूठी तस्वीरें दिखलाए

उफ़ गर्मी बहुत है रे.....
उस पर ये बेशर्मी बहुत है रे !

बच्चो की बड़ाई करते नहीं अघाए 
उनकी कमायाबी की कथा सुनाए
फेल हुए को भी पास बताए
उनकी नौकरी पर भी इतराए 
बिगड़ैलों को संस्कारी जतलाए
अच्छे-खासे रिश्तों को ठुकराए

उफ़ गर्मी बहुत है रे .....
उस पर ये बेशर्मी बहुत है रे !

सास ससुर ठीक से खाना न पाए
ख़ुद चुप्पे-चुप्पे रबड़ी-मेवा उड़ाए
झूठी सेवा के यश-गान गाए
पीठ पीछे सास को गुच्चि आए
पति के सामने भोली बन जाए
त्रिया चरित्र के रंग-ढंग दिखलाए

उफ़ गर्मी बहुत है रे.....
उस पर ये बेशर्मी बहुत है रे !


सविता मिश्रा 'अक्षजा'

अगस्त 27, 2014

~कुछ यूँ ही ~

१....
वो थे कुछ और दिखाते कुछ और ही रहें
खौफ नहीं उन्हें छुपाते कुछ और ही रहें
चेहरे की भावभंगिमा से समझना मुश्किल
दुःख था मगर लुटाते कुछ और ही रहें|  सविता

२.....
मेरी तन्हाईयाँ आज पूछती है मुझसे

कुछ तो कमी थी जो दूर हुए तुम मुझसे|
क्षण भर ही सही पलट कर फिर आ जाओ

भूल सब गले से लिपट रो लुंगी मैं तुझसे|
सविता

अगस्त 23, 2014

दिल की सच्चाई

हे प्रभु, सुन !
कर दें अँधेरा
चारों तरफ.. .
उजाले काटते हैं / छलते है !
लगता है अब डर
उजालें से
दिखती हैं जब
अपनी ही परछाई -
छोटी से बड़ी
बड़ी से विशालकाय होती हुई.
भयभीत हो जाती हूँ !
मेरी ही परछाई मुझे डंस न ले,
ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व !
जब होगा अँधेरा चारों ओर
नहीं दिखेगा
आदमी को आदमी !
यहाँ तक कि हाथ को हाथ भी.
फिर तो मन की आँखें
स्वतः खुल जाएँगी !
देख सकेंगे फिर सभी...
/ और मैं भी /
दिल की सच्चाई !


सविता मिश्रा

अगस्त 15, 2014

बलिदान / शहादत / त्याग

माना होते हैं फौजी शहीद
जब विदेशियों से युद्ध होता हैं

हम अपनों से ही लड़ शहीद हुए
क्यों नहीं कोई कभी भी रोता हैं

बाल बच्चें सब दूर रहते हमसे
याद करके दिल बेबस सा होता हैं

दूजों की करते रक्षा रात दिन हम
अपनों की फिक्र में दिल तड़पता है

जर्जर मकानों में रह परिवार अपना
अब गिरे तब गिरे चिंता मन ढोता हैं

बात भी कभी-कभी कर नहीं पातें बीबी बच्चों से
याद में दिल अपना कभी-कभी खूब रोता हैं

ऐसे पढ़ते ऐसे खेलते होंगे बच्चें
ख्यालों में बस सोचा करते हैं

नहीं देता कोई भी अपनापन हमें
हेय दृष्टि से देखा जाता हैं हर पल

अपने बच्चें भी नहीं किसी से संभाले जाते
गुनाह हम पर ही फट से थोप जाते  हैं

हमारी त्याग तपस्या नहीं समझते कोई
कीचड़ उछालने लगते हैं देखो हर कोई

फौजी भी करते बारी-बारी रक्षा देश की
यहाँ एक पर ही सारा का सारा बोझा होता हैं

कितने हाथ पैर हो हर दूजा अपराधी हैं यहाँ
हर कोई समझ के भी नासमझ हो जाता हैं

मदद करने को कोई जल्दी बढ़ता नहीं कभी
अपराधी पकड़ा जाय जल्दी बस चाहता यही

पुलिस के पास तो हैं जैसे कोई जादुई छड़ी
घुमाये झट और हाजिर मुजरिम कर दे यही

अपराध होते भी देख अनदेखी कर देते सभी
पुलिस पर ही बस दोशारोपड़ करते जाते हैं

खुद चाहे सर से नख तक हो भ्रष्टाचार में डूबा
पुलिस पर तानाकसी ना करे तो यह आठवाँ अजूबा| ...सविता मिश्रा

अगस्त 12, 2014

~रहा है कौन~


गम को मुस्करा कर कौन छुपा रहा
रो के अपनी कमजोरी कौन बता रहा
सुख के समुन्दर में ना कोई गोते लगा रहा
उथले पानी में ना कोई उतरा ही रहा
प्यार के समुंदर में ना कोई नहा रहा
नफ़रत का ही दिया ना कोई जला रहा
वादें जो निभा ना सकें वह कौन कर रहा
हर वादा भी अब कौन यहाँ निभा रहा
मुस्कराहट पर किसी के कौन अपनी जान लुटा रहा
अपनी थाली का भोजन कौन किसको बाँट रहा
दुसरे के मुहं से निवाले ही तो छीन रहा
कौन किसके लिए यहाँ अब मर मिट रहा
किसी के गम में अब कौन आंसू बहा रहा
दुसरे की ख़ुशी में इंसान है रो रहा
जानवर सा हर इंसान यहाँ बन रहा
जानवर भी देख शर्मसार है यहाँ
इंसान वह हर कर्म है कर रहा |...सविता मिश्रा
दूसरा रूप यह हैं .......
२ ....
गम को मुस्करा कर कौन छुपा रहा,
रो के अपनी कमजोरी कौन बता रहा|
सुख के समुन्दर में ना कोई गोते लगा रहा,
उथले पानी में ना कोई उतरा ही रहा|
प्यार के दरिया में ना कोई नहा रहा,
ना कोई नफ़रत का ही दिया जला रहा|
वादें जो निभा ना सकें वह कौन कर रहा,
हर वादा भी अब यहाँ कौन निभा रहा|
मुस्कराहट पर किसी के कौन अपनी जान लुटा रहा,
दूसरे की आँखों में आंसू ही तो बाँट रहा|
दुसरे के मुहं से तो छीन रहा हैं निवाले,
अपनी थाली का भोजन कोई क्यों किसी से बाँट ले|
कौन किसके लिए यहाँ अब मर मिट रहा,
बल्कि मार-काट पर ही तो आमदा हो रहा|
किसी के गम में अब कौन आंसू बहा रहा,
दुजे की ख़ुशी देख इंसान है बस रो रहा|
जानवर सा हर इंसा अब तो यहाँ बन रहा,
जानवर भी देख यह सब शर्मसार हो रहा|
इंसान अब हर वह गलत कर्म है कर रहा,
जिससे उसमे इंसानियत का तो ह्रास हो रहा|...सविता मिश्रा


फिर तीसरी बार रोशन भैया द्वारा मार्गदर्शन करने के पश्चात्
३.....

गम को हंस कर छुपा रहा है कौन
रो के कमजोरियां बता रहा है कौन|

उथले पानी में ना कोई उतरा है,
सुख के दरिया में नहा रहा है कौन|

अब यकीं आता नहीं वादों पर,
वादा भी अब निभा रहा है कौन|

आंसू ही बांटता है आँखों में,
मुस्कराहट पर जान लुटा रहा है कौन|

दुसरे के मुख से छीन रहा हैं निवाले,
अपनी थाली का भोजन बाँट रहा हैं कौन|

हर कोई मार-काट पर आमदा हुआ,
किसी के लिए मर मिट रहा हैं अब कौन|

दूजे की ख़ुशी देख इंसा है बस रो रहा,
किसी के गम में अब आंसू बहा रहा हैं कौन|

जानवर सा हर इंसा बन रहा हैं अब यहाँ,
इंसा बनने की जहमत अब उठा रहा कौन|

हर किसी में इंसानियत का ह्रास हो रहा,
इंसा जैसा बन्दा मिल रहा हैं अब कौन| सविता मिश्रा

हमारी भावनायें (सविता मिश्रा)

अगस्त 10, 2014

राखी भेजा है

रक्षा सूत्र में पिरोकर अपना प्यार भेजा है
भैया तुझे मैंने स्व रक्षार्थ का भार भेजा है|


माना मन में तेरे राखी का सम्मान नहीं
बड़े मान से हमने अपना दुलार भेजा है|


रिश्ता भाई बहन का हैं एक अटूट बंधन
होता जार जार जो सब जोरजार भेजा है|


ढुलक गया मोती जो मेरी नम आँखों से
पिरोकर मोती हमने उपहार भेजा है|


गिले शिकवे भूल सारे फिर एक बार
सहेज कर यादें लिफ़ाफ़े में मधुर भेजा है|


राखी दो पैसे की हो या हजारों की भैया
चंद धागों में लिपटा प्यार बेशुमार भेजा है|


मतलब के हो गये सारे ही रिश्तें नाते
हो मधुर रिश्तें सन्देश दें मधुकर भेजा है|


माना होता प्रगाढ़ बहुत खून का रिश्ता
स्नेह अपार निहित राखी का तार भेजा है|


क्रांति चेहरे की भैया हो ना फीकी कभी
हरने सारे गम माँ का प्यार विधर भेजा है|

.सविता मिश्रा

जुलाई 31, 2014

कष्ट हर एक सरलता से सहे जा रहे है-

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कोमलांगी सुकोमल थे बहुत मगर
कष्ट हर एक सरलता से सहे जा रहे है|

रहम ही करके पाला पोसा है आपको
होके खड़े यूँ तभी आप बोल पा रहे है|

ढहाए हम पर ना जाने कितने ही सितम
क्षमा कर आपको हम मुस्कराते आ रहे है|

नहीं है मलाल ना कोई कडवाहट ही है
भूल सब कुछ सम्मान दिए जा रहे है|

करते नहीं कीमत आप जरा सी हमारी
सर-आँखों पर हम बैठाते आ रहे है|

उड़ाते हो मखौल सदैव कह कमजोर
हम तो गाथा आपकी सुनते आ रहे है|

कही बेबस नहीं थे कभी भी तनिक भी
सर्वोपरि आप ही को मानते आ रहे है|

आइने की तरह रही साफ़ नियत हमारी
आप ही हमें बदनीयती से देखते आ रहे है|

सदियों से समझते रहे अहमक आप हमें
हर रूप में हम आपको आदर देते आ रहे है|


सविता मिश्रा

जून 22, 2014

====तांका ====

१..निष्ठुर नारी
तिक्त हरी मिर्च सी
बाते उसकी
जब भी बोलती वो
चोटिल ही करती|

२...जर्द पत्तिया
बेसहाय सी बिखरी
डाल से टूट
डाल पर थी हरी
हवा में बलखाती|

३..पूत लाडला
 मिट्टी में लोटकर
मटमैला हो
मस्ती में कैसे डूबा
दादा की छत्र छाया|

४....
.लाल स्याही से
हस्ताक्षर कर दे
परीक्षक जो
चढ़ जाता नम्बर
उम्र भर के लिए| .
.सविता मिश्रा

मई 05, 2014

आरक्षण रक्षण किसका भक्षण सबका

आरक्षण ऐसा लगता है कि रक्षण करने के बजाय भक्षण कर रहा है
एक का रक्षण हुआ या नहीं पर दूजे पूर्ण रूप से इस आरक्षण रूपी राक्षस का शिकार हो गये| एक को दबाना दूजे को उठाना क्या गलत नहीं है, क्या हम अपनी दो या चार औलादों में भेदभाव करते है| हम सभी को एक सी शिक्षा, प्रेम, धन, मकान देने में कहा भेद करते है, पर अपना देश अपनी औलादों में कर रहा है| हो सकता है छोटा प्रिय हो (अक्सर कहा जाता है) बड़ा थोड़ा अप्रिय, फिर भी हम बड़े के हाथ पैर काट उसकी उचांई तो नहीं कम करते न, बड़ा बड़ा ही रहेगा हा छोटे को थोड़ा ज्यादा उचांई तक पहुँचने का साधन (मोटिवेट) दे सकते है, उचांई नहीं| परन्तु हमारे देश में आरक्षण के नाम से कुछ ऐसा ही हो रहा है| हम (आरक्षण)एक का हाथ पैर काट दूसरे को गद्दी आरूढ़ कर रहें है, यह नहीं समझ रहे है हम कि बिना नींव मजबूत किये जो मंजिल किसी भी तरह खड़ी भी कर दी जा जाये, एक ना एक दिन धराशायी हो ही जाती है| पद में भी आरक्षण देना कुछ ऐसा ही है|
यदि काबिल बनाना ही चाहते है तो उनकी नींव मजबूत बनाएं वह भी धर्म के आधार पर क्यों गरीबी के आधार पर क्यों नहीं| जो बुद्धि होते भी शिक्षा गरीबी के कारण नहीं ग्रहण कर पाते, उन्हें शिक्षा प्राप्त करने का मौका देना चाहिए| जिसका काम उसी को साजे दूजा करे तो डंडा बाजे सही कहा है हमारे बुजुर्गो ने, जो जिस लायक है ही नहीं आरक्षण के द्वारा उसे वह पद दे देना कहा कि बुद्धिमता है| यह तो अपने को (देश)ही कमजोर करना हुआ जो लायक है, वह दर दर भटके नाइंसाफी ही तो है यह| आखिर कब जागेगें हम जब बिलकुल बर्बाद हो चुके होगे तब |
हमे तो लगता है आरक्षण की बैशाखी बांटनी बंद कर देनी चाहिए ,बाँटना हो तो शिक्षा बांटे जो सब के काम आये सभी को अपने लक्ष्य को निर्धारित करने का हुनर पढाओ, उस लायक बनाओ, बिना भेदभाव के जैसे कि वे देश के लिए कुछ कर सकें| देश के सभी बच्चे लायक होगे तो देश तरक्की करेगा मजबूत होगा| उसके सभी स्तम्भ मजबूत होगे तो किसी दुश्मन की अपने देश पर कुदृष्टि डालने की हिम्मत ना होगी |बिना मेहनत और काबिलियत के पायी हुई चीज की कद्र नहीं होती| जो व्यक्ति अपने पद का कद्र ही नहीं करेगा तो क्या होगा देश का, आप सब खुद ही समझ सकते है|
आरक्षण के नाम से जो जहर फ़ैल रहा है वह भी ख़त्म हो जाएगा| जगह जगह हो रहे जातीय संघर्ष समाप्त हो जायेगें| सब मिल-जुल अपने देश की तरक्की में हाथ बटाएगें और सपनों का भारत बनाने में सहयोग करेगें| सविता मिश्रा

अप्रैल 28, 2014

खुद्दारी भूल जा-

नौकरी करने यदि चला है, तब तो खुद्दारी भूल जा
किसी तरह कनिष्ठों के लगड़ी फंसा खुद्दारी भूल जा |

काना फूसी कर-करके मैनेजर को तू पटा के रख
नमक मिर्च लगा खबर को पेशकर खुद्दारी भूल जा |

इंसानियत छोड़ हमेशा के लिए, रख दें ताक पर अब
बनना है यदि किसी का ख़ासम-ख़ास खुद्दारी भूल जा |

चमचमाती कार से उतरने से पहले ही खोल दरवाजा
तू चमचागिरी की कर सब हदें पार खुद्दारी भूल जा |

साहब के हर हाँ में हाँ मिलाकर खूब कर चमचागिरी
समझ के नासमझ बन बंद रख के मुँह खुद्दारी भूल जा |

आँख-कान लगाये रह हरदम अपने अधिनस्तों पर
बॉस के आते ही भर कान उसका खुद्दारी भूल जा |

हर वक्त जी हुजूरी में अपना सर झुकाए रह खड़ा
घर पर भी बॉस निगाहें उठाये तो खुद्दारी भूल जा |

हदों से भी हद तक गुजरता चला चल मन को मार
राह तरक्की की बढ़ना है गर तो खुद्दारी भूल जा |

जब घृणा से भरा दिल तेरा ही कभी धित्कारे तुझको
आँसुओ को पीकर तू हँसता चल खुद्दारी भूल जा |

गिरगिट की तरह रंग बदलना बना फितरत अपनी
अपनी ही धुन में मस्त चलता चल खुद्दारी भूल जा |

हँस रहा है गर कोई तुझ पर निकल जा कर उसे अनदेखा
लड़खड़ा गिरा गर उठ फिर चल संभल के खुद्दारी भूल जा |

खुद्धारी भी लगे सर उठाने जब खुद्दारी भूल जा
तू दिल पर रख पत्थर अपने और खुद्दारी भूल जा | 
==००==सविता मिश्रा 'अक्षजा'

मन में आता गया लिखते गये शायद फिर बड़ी हो गयी ज्यादा ही ...:D

अप्रैल 09, 2014

हाँ अहिल्या तो हूँ -


हाँ अहिल्या
ही तो हूँ
प्रस्तर सरीखी
पर हमें नहीं किसी
राम की तलाश
खुद ही हरिवाली पाने की
भरपूर कर रही हूँ चेष्टा !
या खोज रही हूँ
घर बाहर

अपनी निष्ठां लगन से एक सुन्दर बगिया
बसाने की जद्दोजहद करती
कोई मेहनत कस महिला |
वह आकर अपने
खून पसीने से
भर जाएगी नया जीवन
और मैं प्रस्तर से
हरीभरी कन्दरा हो जाऊंगी |
राम नहीं सीता
की हैं आज हमें
तलाश जो चुपचाप
बिना किसी शोर शाराबे के
कर जाती है
ना जाने
कितने नेक काम | सविता