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अक्तूबर 07, 2015

विरोध-

पुरुष खड़ा है
विरोध में
पुरुष के ही !

फैला 
रहा भरम जाल
 और
फंसी रही स्त्री।

स्त्री के आस-पास
हर अनजान पुरुष
दुश्मन होता क्यों ?
स्त्री के अपने
जाने पहचाने
पुरुष का ही !!

सोचो तो एक बार
दिख जायेंगी
सच्चाई भी
जो छुपाई गयी है
स्त्री ही स्त्री की दुश्मन
सगूफ़े की आड़ में !

हे पुरुष !
अब तो जागो
मकड़जाल में फांस
स्त्रियों को यूँ
अब तो न उलझाओ !

तुम्हारी ही बनाई
परिधि से निकल रही है
स्त्री भी अब जग रही है !!!

वर्चश्व-

वर्चश्व~
स्त्री ही नहीं
कोई भी
विरोधी हो सकता है !

कभी भी
कहीं भी
कैसे भी
विरोध कर सकता है !

आखिर प्राणी ही तो हैं
अपना दबदबा
रहें बना
इसके लिए
करता रहता है मंथन !

अपने ही
अपने को
काटते रहते हैं
कि वर्चश्व
डिगे न कभी !

पर भूल जाते हैं
हमारी ही तरह
दूसरा भी
करना चाहता है
अपना ही वर्चश्व कायम !

भले ही दबाना पड़े उसे
अपनी ही जाति को
धर्म को
राज्य को
समाज को
या फिर परिवार को !

इस वर्चश्व की
लड़ाई में सब शामिल !

क्याँ नर
क्या नारी !
क्याँ जानवर
और
क्याँ पेड़ पौधे !

सब के सब
दूजे को दबा
उठा लेते हैं खुद को !

बस समझने की बात है
आँख की पट्टी को खोल।।sm

सितंबर 16, 2015

बधाई सन्देश

भोर से कल भोर तक जल भी ग्रहण न होगा....ऐसा त्याग ,ढाढ़स बस एक पत्नी ही रख सकती प्रेमिका नहीं....सभी धर्मनिष्ठ पत्नियो को तीज की हार्दिक बधाई......प्रेमिका या टाइमपास खोजते मूर्खो को भी तीज की बधाई !!!!इस लिये नही कि वो मूर्खता कर रहें इस लिये कि किसी जन्म में तो बहुत पूण्य किये होंगे जो सुधड़ ,संस्कारी पत्नी मिली जो ऐसो को जानते हुये भी भूखी प्यासी रह भगवान से अपने सुहाग की रक्षा का वर मांगती हैं.....सविता☺☺☺☺

अगस्त 22, 2015

स्त्री को जो मिला पढ़ने का अधिकार--


स्त्री को जो मिला
पढ़ने का अधिकार
कुछ ज्यादा ही पढ़ लिया
पुरुषो से
बढ़कर |

किया जब एम.ए. और एल.एल.बी.
बन गयी जब पुरुषों की बीबी |

गयी  दुल्हन बनकर जब ससुराल
झाड़ा ससुर-सास पर
अपनी गिटपिट बनकर दलाल
पति को भी नहीं छोड़ा
 बना लिया गुलाम
पति ने किया
खड़े होकर पत्नी को सलाम |

स्त्री कुछ ज्यादा ही बढ़ी
लेकर बेलन हुई खड़ी
स्त्री को जो मिला
पढ़ने का अधिकार
कुछ ज्यादा ही पढ़ लिया
पुरुषो को पिछड़ा कर |

||सविता मिश्रा ||
१/१९८७

जुलाई 13, 2015

तुला पर जो कभी भी तूला--

तुला-तुला कर रहा
तुला का तू
जाने क्या मोल
न्यायाधीश की कुर्सी के पीछे
अटकी जिसकी साँसे
उससे जाके बोल |

तुला पर तूला जो
साँसे वह रखे रोक
सजा सुनते ही उसके
पड़ जाए घर में जो शोक |

पैसे कौड़ी का मोह नहीं
ना ही रखे घर द्वार
बेच के सब ले आये
न्याय तराजू में रख सब हार |

दर-दर डोला फिरे
न्याय मिले कहीं तो
पर मिलते मिलते न्याय
जिन्दगी गया हार वो |

धन दौलत सब कुछ तो लुट गया
साथ अपनों का भी छूट गया |
न्याय तुला सुरसा मुख में सब झोंके
रह गया वह अब तो कंगाल होंके |

जीवन मरण की तुला पर
पड़ गयी मौत भारी
मौत जैसे ही मिली
हुई कफन की तैयारी |

कफन भी नसीब नहीं अब
साहब था कभी डीके
मरना अच्छा है फिर
क्या करेगा कोई जीके |

न्याय तुलती है
 पट्टी बांधे आँख
छूट जाता वह
जो लुटाता लाख |

न्याय
 चक्रव्यूह बनी हमेशा
छूट न पाया कभी
अर्जुन सरीखा
तुला पर जो कभी भी तूला
न्याय तुला क्या कभी वो भूला |..सविता मिश्रा

जून 23, 2015

तुम वो, जो मैं चाहूँ

तुम लिख दो वो ख़त
जो मैं बांच ही न पाऊँ !
फिर भी पढ़ूँ हर दिन
 
इतराऊँ, बलखाऊँ खुद पर
कि लिखा तुमने ..
उसमें कुछ तो ख़ास
सिर्फ मेरे लिए !

तुम बोल दो वो वचन
जो गुदगुदा जाए
मेरे हृदय तक को...!
मनन कर उन शब्दों को
मुस्कराती रहूँ मैं
हर पलहर घड़ी
क्यों बोलोगे न..
शहद से वो मीठे बोल !


ख्यालो में बादल सा घुमड़ो तुम
जहाँ चाहूँ बरसो
जहाँ चाहूँ ठहर जाओ
जब कहूँ मैं
नवयौवना के लटों सा
काले घने हो जाओ तुम
और कभी बुढ़िया के बालों सा
झक सफ़ेद हो जाओ
बस कहने भर से मेरे !
पल दो पल ...
देख तुझे इतराऊँ मैं
अपनी ही किस्मत पर !
दिल की धड़कन बन तुम धड़को ...
महसूस करुँ मैं तुम्हें
 
हर धक धक में

जब एकांत में होऊँ
गर्व से इठराऊँ  कि ..
कोई तो इतना अपना है
हर पल रहता साथ मेरे
बनकर परछाई मेरी !

खड़ी होऊँ जब-जब
आईने के समक्ष
मुझमेँ तुम ही दिखो !
सँवारु मैं खुद को तो ...
सँवर तुम जाओ
तुममें मैंमुझमें तुम बसो
और एकाकार हो मैं इठलाऊँ !

बन्द करूँ जब-जब आँखे
तुम ही तुम दिखो ..
बसो ऐसे मेरे मन मंदिर में कि
भगवान की मूरत में भी मैं
तुमको ही निहार पाऊँ....

बताओ न !
होवोगे ऐसे ही न
देखना चाहती हूँ मैं तुम्हें जैसा !

यूँ ही बेख्याली में--
सविता मिश्रा 'अक्षजा'

जून 06, 2015

अपने से इतर ~

बहुत कोशिश की हमने
दिल से दिल मिलाने की
पर एक बात मन में
तीर सी चुभ गयी !
नासूर ना सही पर
तनिक घाव कर 
ही गयी
कहते थे
बहुत किया है
 उन्होंने सभी का
पर इस बार
पट बंद कर लिया घर का |

क्या जो मुहं से कहते 
हैं अक्सर
वह करतें भी कभी दूजे के लिए
डिंग हांकने को तो
बहुत से लोग हांकते हैं
पर किया क्या ?
अपने गिरेबान में नहीं झाँकते हैं |

झांको जरा गिरेबान अपना
कुछ न मिलेगा!
जो दिखाते हो रौब
apni karmaryta ka
वह भी नदारत होगा |

अपने से इतर हो देखो
तो दुसरे के गुण  पाओंगे
खुद धरती पर पड़े धूल चाटते नजर फिर आओंगे |.....सविता मिश्रा

अप्रैल 02, 2015

हमारा उत्तर प्रदेश

बस मन में एक ख्याल आया लिख गये ...:)

बदनाम भले है
उत्तर प्रदेश
पर इसकी
माटी को छूते ही
हर कोई खरा
हाँ खरा सोना सा
हो जाता है

कितने महात्मन
साधू-सन्यासी
वेद, पुराण ज्ञाता
लेखक-कवि
कद्दावर नेता
और कई बुद्धिजीवी
इसी धरती की देन हैं

जो नहीं भी हैं
इस धरती पर
कदम रखते ही
वो लोग भी
कनक से हो जाते हैं

पारस !!
हाँ पारस !
कह सकते हैं आप
इस धरती को 
स्वर्ग सा सुंदर 
मेरा, तुम्हारा और 
सभी का भी प्यारा 
यह उत्तर प्रदेश

एक बार ही सही
यहाँ की हवा में
लीं हैं साँसे जिसने
सांसो के जरिये उनके
शरीर में घुल गयी है
यूपी की माटी की तासीर
बुद्धिमता की दौड़ में
बढ़ गया वो आगे

पर अफ़सोस
परजीवी भी
बहुतायत में
इसी माटी में
पाए जाने लगे हैं
और बद से ज्यादा
बदनाम होने लगा है
हमारा उत्तर प्रदेश |

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
 

मार्च 19, 2015

~~कृपया कोई जुगत बताओ ~~

मन में रोज सवाल उठता था
हिम्मत ना हुई पूछने की
पर आज अपनी
पूरी हिम्मत को जुटा कर
पूछ रहे हैं
अपने ही आस्तीन में
पलते हुए सांप से-
क्यों सांप नाथ
आप बताएगें,
आप में और जंगल के
बिलों में रहने वाले
सांपो में फर्क क्या हैं?

सांप ने सवाल सुन
पहले आँखे तरेरी
फिर की लाल-पीली
गुस्से से फुंफकार कर बोला-
क्या तुझे
यह भी नहीं पता?

जंगल में रहने वाला सांप
थोड़ा शरीफ होता है
बिना छेड़खानी किये
नहीं काटता किसी इंसान को।

पर मैं थोड़ा हट के हूँ
जो मुझे पालता हैं
मौका मिलते ही
उसी को पहले डंसता हूँ।
अपने अजीज को भी नहीं छोड़ता
इसी लिए तो आस्तीनों में पलता हूँ।

हम सुन थोड़ा सकपका गये
आस्तीन से कैसे हटायें
कृपया कोई जुगत बताओ|....सविता मिश्रा

मार्च 15, 2015

~~हम तुम्हारी ही परछाई है~~

अर्धांगनी है तुम्हारी
तुम्हारे साथ ही जीना-मरना है
हम तुम्हारी ही परछाई है
परछाई की तरह ही साथ रहना है
जब जब तुम लड़खड़ा कर गिरोंगे
बढ़कर हम थाम लेंगे तुम्हें
जो तुम देख नहीं पाओंगे
वो चीज भी दिखायेंगे तुम्हें,
भटक गए यदि कही दो राहें पर
तो मंजिल का पता बताएगें तुम्हें,
जब कभी तुम हमें आवाज दें पुकारोंगे
सब कुछ छोड़ पास तुम्हारें दौड़े आएगें
जब जब तुम संकट में होंगे
वादा है हमारा हम साथ ही होंगे तुम्हारें ,
पर एक प्रार्थना है हमारी तुमसे
हमें अपने दिल में यू ही बसायें रखना ,
प्यार करते हो तुम जितना हमसे सनम
उसे यूँ ही सदैव हृदय में बनायें रखना |
+++++ सविता मिश्रा +++++

बस यूँ ही (५)

....

मेरे हुनर का होगा देखना ऐसा कमाल कि
दुश्मन को भी होगा मेरे मरने का मलाल |....सविता

२...

शांति मिली कहाँ, यहाँ कभी शांति से
करनी पड़ी अशांति, अक्सर शांति से | ,...सविता

३ ...

ऐसे-ऐसे ना जाने कैसे -कैसे ....कैसे होकर अपना रूप दिखाते हैं
हम सीधे-साधे सच्चे इंसा होकर भी ....खड़े बस मुँह ताकते रह जाते हैं | सविता

४....

प्यार के दो बोल बोलता था कोई, जेहन में शहद सा घोलता था कोई
ना जानें क्यों अब ऐसा क्या हुआ, ना वह बोलता ना हम ही बढ़कर बोलतें | ...सविता मिश्रा

५...

 कद व पद के घमंड में  जाने 
कितने लोग हुए हैं चकचूर
और कहीं कद पद की मर्यादा भंग कर हुए हैं मगरूर | ...सविता मिश्रा

मार्च 11, 2015

~उलझा विवाद~

बस अभी ऐसे ही लिख आये कैसे क्यों लिखे पता नहीं
Veeru Sonker bhai ki परेशानी पर
.....

उलझा विवाद
सुलझा क्या कभी
उलझता गया
जितना सुलझाया
तू तड़ाक कर
ख़त्म होते होते भी
फिर उलझा
ऐसे क्या सुलझा कभी
सुलझते उलझते

उलझते सुलझते

हम ही उलझ कर रह गये
बहती नदी के साथ
बहते बहते बह गये
ऐसा नहीं है कि
रुकना नहीं चाहा
चाहा ...
बहुत चाहा पर
क्या कभी रुक पाया
बल्कि लपेट लिया उसने
आस पास बहती
सारी नदी नालियों को | सविता बस यूँ ही

~बेटा ! तू क्या समझेगा ~

यह कविता हम यही फेसबुक पर किसी का स्टेटस पढ़े थे उसको पढ़ने के बाद लिखी वह भी स्टेटस अपने भाई के गंगा में डूब जाने पर थी .वह अपनी माँ पर कविता लिखना चाहते थे जहा तक हमें याद है बहुत दिन हो गया पढ़े अतः याद नहीं पर हा वह कवि ही कोई होगे यह अवश्य पता ..पता नहीं हम उनकी भावना को समझ पाए या नहीं पर इन पंक्तियों में अपनी भावना जरुर व्यक्त की है ........यह पंक्तिया उन भाई को समर्पित करते है ................
बेटा !
तू क्या समझेगा
माँ की वेदना
कभी
तू बेटा है अ
भी
बाप बनेगा कभी
पर माँ नहीं बन पायेगा |
बिन माँ बने कैसे समझेगा
माँ की भावनाएं
कैसे दर्द को
उसके
अपने अंतःकरण से
महसूस कर पायेंगा |
ढ़ेर सारी तकलीफ सह
जन्म दिया उसने
नाज-नखरे उठा तेरे
किया था बड़ा उसने |
जब वही अकाल ही
काल के गर्त में
समां जाता है
कितना कष्ट होता है
तू क्या समझेगा ?
आँख से पानी नहीं खून रिसता है
दिल भी पल-पल हर क्षण रोता है |
दिखे तुम्हें अश्रु भले ही ना
पर आँखे भर आती है
हर क्षण, पल पल
याद कर वह लम्हां |
शरीर क्या वह तो
लाश बन रह जाती है
तेरे लिए ही बस
सब कुछ सह जाती है |
बेटा !
तू क्या समझेगा
कभी माँ की बेदना
माँ को बहुत कुछ
पड़ता है सहना ..
बहुत ही सहना ...
ऐसे मंजर ना हो घटित
कभी किसी माँ के जीवन में
बस कर सकना तो यही
प्रार्थना तुम!
प्रभु के आगे सदैव  करना || .सविता मिश्रा

मार्च 05, 2015

लंगूर बन के --

भर उमंग मन में हम नारियाँ जहाँ फटके
भाग जाओगे तुम सब वहां से बन्दर बनके।

गुझियाँ पापड़ और पकवान बना-बना करके
थक हार चुप बैठे हैं हुड़दंगी मन को परे धरके |

चुप्पी जो तोड़ दी हमने, रह जाओगे हक्के-बक्के
रंग चढ़ा, तो होली खेलेंगे हम फिर खूब ही छक के |

जो मचल रहे हो यहाँ-वहाँ तुम सब तन-तन के
भागोगे फिर भीगी बिल्ली तुम सब बन-बन के |

बच्चों-सी पिचकारी लिए इधर-उधर हो फिरते
दम नहीं है किसी में रंग लगाये गाल पे मल के |

भंग के नशे में जो आ रहे हो उछल-उछल के
भंग उतरते ही मिलोगे सारे के सारे कहीं दुबके |

होली खेलना सभी हमसे जरा संभल-संभल के
वरना सब मिलोगे फिर लाल-पीले-लंगूर बन के |...सविता मिश्रा 'अक्षजा'

फ़रवरी 22, 2015

जीवन

नाच-नाच के
थक गयी जब मैं
बैठ़ गई सुस्ताने
पेड़ की छाँव में
पलक झपकते पेड़
पेड़ ही न रहा
मजबूरन कंक्रीट के जंगलों में
छाया की तलाश में
भटक रही हूँ
समय पंख लगा
उड़ गया पल भर में
हताश मैं
अंधी गली के
कोने में पड़ी
जीवन का
चिन्तन कर रही हूँ
एक एक करके
यादों की परत हटाते हुए
देखो तो मैं मूरख
अपने आप से ही
बात कर-करके
कभी आँखों में नमी
और कभी चेहरे पर हँसी
बिखरा रही हूँ
हठ़ात सडाँध का एक झोंका
मुझे हकीक़त के
दायरे में खींच लाता है
मैं सोच रही हूँ
आयेगा एक दिन ऐसा ही
सभी के जीवन में
फिर भी
भविष्य के लिये
वर्तमान को
दांव पर लगते देख
घबरा रही हूँ मैं
स्वयं की जैसी गति देख
सभी गतिमान की
बेचैन हुई जा रही हूँ मैं
तरक्की की अंधी दौड़ में
भागते-भागते
जीवन की सच्चाई से
रूबरू होकर
फिर से पेड़ की छाँव
तलाश रही हूँ मैं
कठपुतली सा मुझे
नचा-नचा के तू न थका पर
नाच-नाच के थक गयी हूँ मैं |

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
---००---

फ़रवरी 16, 2015

~~कुछ खास लिखूँ~~

आज दिल किया कि कुछ खास लिखूँ ,
अपने अन्तःमन में दबे अहसास लिखूँ |

छोटी-छोटी बातों से  दिल पर
हुए जो आघात लिखूँ ,
या नासूर बन गए जो उन जख्मों का हाल लिखूँ |

प्यार के अहसास की खुशफहेमियां लिखूँ ,
या व्यंग बाण की चुभन की तकलीफ लिखूँ |

जो दिल पर हमारे घाव कर निकल गए ,
उनके लिए निकली दिल से जो बद्दुआयें लिखूँ |

या प्यार से संजोया जिसने हमको रात-दिन ,
उनके लिए निकलती रोज दिल से जो दुआएं लिखूँ |

किसी की मदद कर जो दिव्य-अनुभूति हुई ,
उस अहसास को पिरो शब्दों के जाल लिखूँ |

या उसने जो दुआएं दी उससे खुद को हुई ,
जो सुखद अनुभूति उसका अहसास लिखूँ |

आज दिल कर रहा है कुछ खास लिखूँ ,
अपनी ही अहसासों के जज्बात लिखूँ |
||सविता मिश्रा ||

फ़रवरी 04, 2015

~~सांचे में ढल ना सकीं ~~

मगरूर थी सांचे में ढल ना सकीं
ढ़लने चली तो साँचा ही न रहा |


बेकदरी के जमाने में कद्र कितनी
नापने चली तो कद्रदान ही ना रहा |

खुशियों के बादल घुमड़ते हरदम
भींगना चाहा जब तरसा वह रहा |

निश्चिन्त हो शांति तलासती थी कभी
आज शांति का लगा जमावड़ा रहा |

चीखते-चीखते गले पड़ी खराश
बोले बिन आज पड़ ख़राश रहा |

आगे-पीछे घूमते रहते थे लोग
पदमुक्त तब घर में अकाल रहा |..सविता मिश्रा