मगरूर थी सांचे में ढल ना सकीं
ढ़लने चली तो साँचा ही न रहा |
बेकदरी के जमाने में कद्र कितनी
नापने चली तो कद्रदान ही ना रहा |
खुशियों के बादल घुमड़ते हरदम
भींगना चाहा जब तरसा वह रहा |
निश्चिन्त हो शांति तलासती थी कभी
आज शांति का लगा जमावड़ा रहा |
चीखते-चीखते गले पड़ी खराश
बोले बिन आज पड़ ख़राश रहा |
आगे-पीछे घूमते रहते थे लोग
पदमुक्त तब घर में अकाल रहा |..सविता मिश्रा
ढ़लने चली तो साँचा ही न रहा |
बेकदरी के जमाने में कद्र कितनी
नापने चली तो कद्रदान ही ना रहा |
खुशियों के बादल घुमड़ते हरदम
भींगना चाहा जब तरसा वह रहा |
निश्चिन्त हो शांति तलासती थी कभी
आज शांति का लगा जमावड़ा रहा |
चीखते-चीखते गले पड़ी खराश
बोले बिन आज पड़ ख़राश रहा |
आगे-पीछे घूमते रहते थे लोग
पदमुक्त तब घर में अकाल रहा |..सविता मिश्रा
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