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फ़रवरी 22, 2015

जीवन

नाच-नाच के
थक गयी जब मैं
बैठ़ गई सुस्ताने
पेड़ की छाँव में
पलक झपकते पेड़
पेड़ ही न रहा
मजबूरन कंक्रीट के जंगलों में
छाया की तलाश में
भटक रही हूँ
समय पंख लगा
उड़ गया पल भर में
हताश मैं
अंधी गली के
कोने में पड़ी
जीवन का
चिन्तन कर रही हूँ
एक एक करके
यादों की परत हटाते हुए
देखो तो मैं मूरख
अपने आप से ही
बात कर-करके
कभी आँखों में नमी
और कभी चेहरे पर हँसी
बिखरा रही हूँ
हठ़ात सडाँध का एक झोंका
मुझे हकीक़त के
दायरे में खींच लाता है
मैं सोच रही हूँ
आयेगा एक दिन ऐसा ही
सभी के जीवन में
फिर भी
भविष्य के लिये
वर्तमान को
दांव पर लगते देख
घबरा रही हूँ मैं
स्वयं की जैसी गति देख
सभी गतिमान की
बेचैन हुई जा रही हूँ मैं
तरक्की की अंधी दौड़ में
भागते-भागते
जीवन की सच्चाई से
रूबरू होकर
फिर से पेड़ की छाँव
तलाश रही हूँ मैं
कठपुतली सा मुझे
नचा-नचा के तू न थका पर
नाच-नाच के थक गयी हूँ मैं |

सविता मिश्रा 'अक्षजा'
---००---

5 टिप्‍पणियां:

शिव राज शर्मा ने कहा…

बहुत अच्छा द्वंद्व ।

NKC ने कहा…

BAHUT SUNDAR VICHAARPURN RACHANA!

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर..

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 29/07/2019 की बुलेटिन, "ब्लॉग बुलिटेन-ब्लॉग रत्न सम्मान प्रतियोगिता 2019(छतीसवां दिन)कविता “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

रेणु ने कहा…

जीवन से गायब होती पेड़ों की छाया और कंक्रीट के जंगल से डरते विकल मन की उहापोह को बहुत ही बेहतरीन ढंग से रचना में पिरोया है आपने प्रिय सविता ही | आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा | ब्लॉग बुलेटिन को आभार जिसके सौजन्य से आपके ब्लॉग तक पहुँच पाई| सस्नेह हार्दिक शुभकामनायें |